हमें अधिकार दो
अब चुप है मिलकी व्हीसलें
जैसे सन्नाटा ओढकर सो गयी है
अहमदाबादकी शान और शौकत.
मुंह खंगालकर
कंधे पर कमीज़ डालकर
कच्ची नींद मसलता
तीसरी पारीका कपड़ामील कामगार
मुर्गेबकरेसे खचाखच चालके बीच होकर
धडाधड भागनेके बजाय
अब टूटीफूटी खाट पर लेटा रहता है.
रातदिन उसकी साँसकी सीटियाँ बजतीं रहतीं हैं.
पुरानी यादें
फकफक रूला देती हैं उसकी घरवालीको
जिसे निश्वास रखनेके लिए
आकाश भी कम पड जाता है
सिगरीमें जला हुआ बुरादा ओढकर
उसके नंगधड़ंग बच्चे सोये हुए हैं बरामदेमें.
उनकी आंखोमे
रौबसे गुजर जाता है आजादीकी पचासवीं जयंतिका रथ .
मुंह अँधेरे
कंधे पर झोले डाले
चुननेके लिए निकल पड़ती हैं
उनकी जवानीके कगार पर खड़ीं लडकीयाँ.
कूड़ेदानमें ढूँढतीं हैं वे अपना भविष्य.
उनके पोरों पर पड़े हैं निराक्षरताके गहन घाव.
रद्दी कागज़ चुनते चुनते
तारकोलकी सड़कों पर लहुलुहान उंगलीयोंसे
वे लिखती है,
‘हमें अधिकार दो’.स्वयंसे
जहाँ मुझे रोपा गया है
उस वातावरणकी
घुटनसे
मुक्त होनेके
सुंदर सपनेमें
स्वयंको डूबानेकी
या तो
टूटकर मिट्टीके ढेलेसे लगे रहे तंतुको
सहलानेकी चेष्टा करते हुए
स्वयंको
मैं जब सह लेता हूँ अनमना .
लेकिन जब सह लेता हूँ
उस पलके लिए मैं , मैं नहीं रहता.
सहनशीलताकी गोदमें बैठनेकी आदी
उस स्साली जातको
हाक् थू.
***
गुजराती दलित कविता
मधुकान्त कल्पित
अनुवाद: डॉ जी के वणकर
गतिपर्व
आज बीच हथेली
ज्वाला होकर बैठी जात.
पोरों पर आज एक शब्द
स्पष्ट उभरता
फूंफकारता.
कितनी ही सदियोंसे
अन्धकार की चादर ओढ़े
सोया हुआ
लहू
किनारे तोड़ फोड़ कर
उँगलियाँ पर
सवार होकर
खुद गरजता
दौडा.
***
ज्वाला गीत
आवाज़ दे कर
सचमुच् ही कौन, ले चला मुझे यहाँसे भगा कर?
सिर झुकाकर जीनेकी आदत, आदत नहीं है, वो तो है धू धू पीड़ा,
झाँक जरा जो भीतर,
देखोगे प्रथाओं के कुलबुलाते कीड़े.
इन्सान हो तुम, उठो,
अरे, यह कौन गुज़र गया, मुझे विह्वल जगा कर?
हथेली में उग आयी है एक रेखा, रखा है नाम उसका चेतना,
मुरझाया मन ऐसे उड़ने चला
यह बात अब कोई नहीं मानता।
राख तले सोयी, मैं आग हूँ
फूंक लगी हल्की सी, जाग गया हूँ फूंफकारता।
***
मजबूरी
शस्त्र और शास्त्र
दोनों आपके हाथोंमें,
हम खाली हाथ.
बोलते हैं,
चिल्लाते है,
और जोरसे चिल्लाते हैं.
सिर फोड़ते है.
तुम
धीरे से मुस्कुरा देते हो
मुस्कुराते ही रहते हो
हम पर
हमारे खाली हाथों पर.
***
धुआँ
अब हवामें फड़फड़ा रहा है
ज़िन्दगी का जीर्णशीर्ण वस्त्र.
उसके एकाध टूकड़े को जैसे ही ले आता हूँ
घ्राण के निकट
उसमें से निकलती
धुएँ की तीव्र बास,
मेरे चित्तमें जगा देती है पुराना संस्कार.
यह बास
पियक्कड़ों द्वारा जिनकी हत्या कर दी गयी
ऐसे मेरे निर्दोष पूर्वजों के अर्धदग्ध देह की तो नहीं?
उन के रक्त माँस सिझने की आवाज
क्यों बारबार प्रतिध्वनित हो रही है
मेरी चेतना के गुम्बज में?
अग्निज्वालाओं में भस्मिभूत
मेरे पूर्वजोंके बसेरों की जलती ज्वालाओं के उजालेमें
आज मैं सिख रहा हूँ
पदार्थ पाठ.
इसी लिए तो
डरावना अतीत जैसे ही
मेरे मुहल्लेमें दिखता है
मेरी मुठ्ठीयाँ तन जाती है
सख्त.
***
गुजराती दलित कविता
मधुकान्त कल्पित
अनुवाद: डॉ जी के वणकर
मौका
सोमपुरा को मिला नहीं
वह , मैं पत्थर.
गाँव के छोर पर
इधर उधर मैं
भटक रहा हूँ,
अंदर अंदर
खुदको
खटक रहा हूँ.
***
मैं
वैसे तो
मेरे भीतर दो लोग जी रहे हैं.
एक
परंपरा के बोजसे झुका हुआ
चूपचाप घसीटा जाता
और
दूसरा
यातनाओं के खुले जबड़े के बीच भी
क्रुद्ध ,आक्रमक और अडिग.
एक
मजबूर चेहरा
कंपकंपाता सांस लेता,
दूसरा
स्वयं ज्वाला बन कर
प्रत्येक हिलचलको प्रजवलित करता हुआ.
एक
रूढ़िगत विभावनाओं से
जकड़ा हुआ,
दूसरा
खुदको खकझोरने के लिए
दूसरी ही प्रक्रिया आजमाता
में तो चाहता था
सिर्फ एक ही किस्मकी जिंदगी जीना.
आज मैंने
मूंद कर आंखें,
गहरी सांस लेकर
एक निर्धारित समयका दरवाजा खोलता हूँ.
और अरे,
देखो ,
खड़ा हूँ
उन्नत मस्तक
बिल्कुल
आपके सामने.
***
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