Sunday, October 24, 2021

महर्षि ब्रह्म चमार की कविता


निश्चय

मेरे आँसु की एक बूँदकी कीमत
खून के जितनी
लगायी गयी
तब समझ में आया 
कि यहाँ तो
खून की नदियां बह रही है.

वाणी के ज़ख्म
और 
चाबुक के प्रहार.
मेरी देह है
ऐसा एहसास
कितने ही साल के बाद
आज मुझे हो रहा है.

वही अंतिम घर है मेरा.
अब जो खून बह गया है
उसे इतिहासमें मढ़ देना है,
मैंने किया है यह निश्चय!

कुसुम डाभी की कविता


मानसिक गुलाम

तेरे दिमागमें कैसे सवाल उठने चाहिए
यह हम तय करेंगे

तुम्हैं 
क्या कहना
क्या पीना
क्या पहनना
क्या ओढ़ना
हम तय करेंगे
 
तुम्हें 
क्या अध्ययन करना
क्या पढ़ना
क्या लिखना
हम तय करेंगे

तुम्हें 
किसे दान देना
कहाँ घूमने जाना
किस धर्मको मानना
हम तय करेंगे

तुम्हें
कौनसी फ़िल्म सीरियल देखना है
भजन सुनना या गजल
हम ही तय करेंगे

तुम्हें 
किससे करना है 
प्यार या नफरत
किससे करनी है शादी
कितने पैदा करना है बच्चे
सुन, वह भी हम ही तय करेंगे

तुझे 
जीना है
मरना है 
आत्महत्या करनी है
सुन, वह हमीं तय करेंगे

अगर तुम्हें लगता है
तुम स्वतंत्र हो
स्वयं निर्णय करते हो
तुम चाहो ऐसा जीते हो
तुम जो चाहते हो वही करते हो
तो सुन, दुबारा
दोस्त, यह तेरा वहम है
तेरा दिमाग हैक किया गया है
तुम महज कठपुतली हो
नाचते हो
कूदते हो
दौड़ते हो
खेलते हो
गाते हो
जीते हो
मरते हो
सब कुछ होता है
हमारे कहने के मुताबिक

करोड़ो 
तैयार हैं
तुम भी हो 
उनमेंसे एक।

Saturday, October 23, 2021

नगीनचन्द्र डोडिया की कविता


मेरा बाप

इस देशका यह दोष है
जिसने बापको मेरे
इस देशकी भूमि पर  
सिर उठाकर
जीने न दिया
उम्रभर.

उम्रभर जिसने पीया पसीना
जब भी प्यास लगी
(किसीका न खून पीया)
रोटीके टूकडेमें
जी रहे जिंदगी मेरे बापको
(किसीकी न रोटी छीन ली)

बाप मेरा 
जिसने लिया नहीं सरकारसे
सर्टिफेकट (बिलकुल जूठा)
स्वातंत्र्यसेनानी होनेका
न ही खाया कोई पेंशन.
न ही जिसने कभी
हाथ जोड़कर  वोट मांगकर
देशकी जनताको उल्लू बनाया.

बाप मेरा
जिसने  खाद्यान्नमें मिलावट कभी न कि,
न किसी जानको जोखिममें डाला.
जिंदगीमें  कभी न फैलाया हाथ
ना किसीकी बहन-बेटीकी इज्जत पे हाथ डाला.
फिरभी लानत है  इस देशकी कातिल प्रजाको
जिसने बापको मेरे
इस देशकी भूमि पर  
सिर उठा का
जीने न दिया
उम्रभर.

बाप मेरा 
जिसने उम्रभर
कभी न फैलाया हाथ किसीके सामने,
न ही याचना कि दयाकी
जिनेकी खातिर न कभी वो गीडगीडाया
फिर भी ऐसे मेरे बापको
इस देशके नापाक लोगोंने
कभी जीने न दीया
सिर उठा कर
उम्रभर.

पुत्र मेरा
आगे चलकर
लेकिन
कभी न कहेगा ऐसा.

अपूर्व अमीन की कविता


न ही छंद निकलता है
न ही अलंकार
न ही बाहर आता है हमारे शब्दों से श्रृंगार
मूंह खोलते ही 
चीखें निकालतीं  क्रुद्ध कविता निकलती है।
मधुर रस नहीं निकलता हमारे कंठसे
जैसे ही जुबान हिलती है, गाली निकलती है.
कुचली हुई क्रोधित कविता सदा ही व्याकरण हिन निकलती हैं
न ही हल्की  बूंदाबांदी में प्रेम कविता निकलती है
गला फटते ही तुरन्त बरसों से तपती गर्मियों में  दोपहर में खड़ी रखी आग निकलती है.
शातिर रोना नहीं आता हैं न ही कृत्रिम हास्य,
जैसे ही मुंह खोलते हैं नाखून गड़ाती जाति बाहर निकलती है.
हमारे लेखन में न ही फूल बाहर आते हैं
न ही झरने और प्रपात आते हैं
जैसे ही छिड़कते हैं स्याही, कुचले हुए हाथों में तेजाबी तलवारें बाहर निकलतीं हैं.
अगर शहरमें आँधी तूफान आ जाता है ,
कब्र चीर कर मुर्दे बाहर निकल आते हैं.
न छंद आते हैं , न ही अलंकार आते हैं
मुंह खोलते ही स्वर पेटी से रोक दिया गया था वह आक्रोश बाहर निकल आता है.

Saturday, May 16, 2015

निलेश काथडकी कविता

छूआछूत


 


















तेरे दो हाथ है
मेरे भी  .

तेरे दो पैर है
मेरे भी .

तेरे आँख,कान, नाक और मुँह है
मेरे भी

 तुम बोलते हो
मैं भी .

तेरा नाम है
मेरा भी .

तुम साँस लेते हो
मैं भी .

तुम इंसान हो
मैं भी .

फिर भी कितना फर्क है
तुम गाँवके अन्दर  और मैं गाँव बाहर
और दोनोंके बीच
रहती है छूआछूत

Tuesday, March 17, 2015

रोना रोटीका लिए :चंदू महेरिया















सन १९८४ , हमारे परिवारके अभिन्न अंग ऐसे मित्र महेश परमारको बैंकमें नौकरी लगी.जिला मेह्सनाके एक नगरमें उनका पोस्टींग: सो हर रोज  ट्रेनसे अप-डाउन शुरू हुआ. एक-दो दिनमें ही पता चल गया कि उनके बेन्कके मैनेजर शाह साहब भी  उसी ट्रेनसे अप-डाउन करते है, इस लिए उनका हररोजका साथ हुआ. महेशभाई धीरेधीरे ट्रेनसे अप-डाउन करनेवाले लोगोंकी निराली दुनियामें अपने आपको ढा रहे थे. पखवाडेके बाद ट्रेनसे वापस लौटते वक्त शाह साहबने महेशभाईके सामने लंच बोक्स खोल दिया. एक टुकड़ा तोड़ा और महेशभाई सहसा बोल उठे- ‘ सर , मैडम इत्ती पतली रोटी बनातीं हैं..’ सुनते ही इर्दगिर्द बैठे-खड़े लोग हँस पड़े.शाह साहबने रहस्योद्घाटन किया,’परमार, यह रोटी नहीं, खाखरा है.’


हर रोजकी तरह महेशभाई रातके भोजनके बाद हमारे घर आये और वाकया सुनाया. हम सभी उस खाध्यपदार्थके  बारेमें आश्चर्यचकित थे. आज तो महेशभाई बैंक मैनेजर हैं, अपनी जेबसे ढेर महंगे होटेलमें लंच-डिनर कर सकते हैं. लेकिन नरेंद्र मोदी जिसकी गुजरात गौरवमें गणना करवाते हैं वह खाखरा, बीसवे शतकके  नवेँ दशकमे अहमदाबाद्के राजपुर विस्तारके  दलित चालके लिए अजनबी है. आज भी हमारे चालमें ऐसे दो-पांच घर मिल ही जायेंगे जिन्होंने खाखरा देखा ही ना होगा. और पाँच-पंद्रह घर  ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्होंने खाखरा चखे ही होंगे.

मेरे बचपनके और किशोरावास्थाके वे दिन धानके एक एक दानेके लिए अजीब बेताबीके दिन थे. बा’(पिताजीको हमबाकहते  थे) अह्मदाबाद्के कपड़ा मिलमें मजदूर थे. उनके एक पगारमें पाँच  भाई और दो बह्नोंका विस्तृत परिवार चलाना लोहेके चने चबाना था.

उन दिनों अनाज्की भारी कमी थी.पि.एल.४८०के लाल गेहूँकि रोटी भी साहेबी थी.अनाज्का कंट्रोल था.सस्ते रशंकी दूकान पर कई दिन धक्के खानेके बाद थोड़ा अनाज मिलता.बाजरा और जुवारकी रोटी, कनकी और मोटे चावलसे पेटका खड्डा भरना था. माँ सुबह-सवेरे भूसेकी सिगड़ी पर मिट्टीके तवे पर रोटला सेंक्तीं. हम सब भाई-बहनको एक एक रोटी मिलती. हम अपने   हिस्सेकी रोटी सब्जीके साथ खा लेते और   बची हुई रोटी गुदड़ी रखनेके डामचियामें अपनी अपनी गुदड़ीमें छुपा देते. बदबूदार गुदड़ी, बदबूदार डामचिया और उसमे छुपायी चौथिया रोटी, वही था  हमारा रोटी बैंक. आज वह याद करे भी घीन आती है लेकिन डामचियाके सेफ डिपोजिट वोल्टमें छुपायी संजोयी रोटी खाते ही बचपन गुजरा. चालकी कुछेक औरतें और ज्यादातर मर्द कपड़ा मिलमें  मजदूर थे. मिल तीन पालीमें धमधमती. मिलके सायरन पर जीवन धबकता. ‘बाकी हमेशा सुबहकी पाली. सुबहके सात बजेसे दोपहर साढ़े तीन बजे तक वे काम पर जाते. ग्यारहसे साढे ग्यारह तक खानेकी छुट्टी रहती थी.अतः सुबह नव साढे  नव बजे तक बाका  टिफिन तैयार हो जाता. हम सब भाई अनुकुलताके हिसाबसे मिलमें टिफिन पहुंचनेके लिए जाते थे. मेरा स्कूल दोपहरका. अतः हर रोज मैं राजपुरसे रखियाल पैदलबाको टिफिन पहुँचाने जाता था. सुबह दस बजे मिलका गेट खुलता. ‘बातो अपने काममे व्यस्त होते इसलिए खानेकी छापरीमें टिफिन रख देनेका यही क्रम था. कभीबामिल जाते तो केन्टीनसे पांच पैसेकी पूड़ियाँ दिला देते. मैं हर रोज इसीलिए उनकी राह देखा करता. मिलमें दलित-अदलित सब साथमे मेहनत तो करते लेकिन उनके खानेकी जगहे अलग अलग थीं. बादमे बड़े होनेके बाद पाया कि अहमदाबाद्के मिल मजदूरोंमे मार्क्सवादी एकता क्यों थी. डॉ.अम्बेडकरने ठीक ही कहा है कि- ‘ जातिप्रथा श्रमका नहीँ, श्रमिकोंका विभाजन है.’

मिल और रोटीसे जुडी हुयी एक और स्मृति भी मनसे कभी हटती  नहीं. आज शासकीय सेवाके चलते हर रोज चार बजे चाय पीनेकी आदत बन गयी है. लेकिन कई बार उस वक्त बचपनकी उस स्मृतिमें खो जाता हूँ और मन बेचैन हो उठता है, चायका जायका बीगड़ जाता है. बात यह कि हर शाम साढे तीन बजेबाकी कपड़ा मिल छूटती. उनके पैदल घर पहुँचते पहुँचते चार सवा चार बज जाते. उस वक्त हम सब घर पर होते और चार बजनेकी राह देखते. राजपुर पोस्ट ओफिसके  चकले पर खड़े रहते और जैसे हीबाटोपी मिलसे आते दिखते, हम उनके सामने दौड़ जाते. यह दौड़बाको मिलनेकी,उनसे चीपक जानेकी- खुशीकी दौड़ हरगिज  थी. किन्तु  उनके हाथसे टिफिन कौन छीन लेता है उसकी थी. ‘बाटिफिनमें चौथिया रोटी बचाकर वापस लाते, वह खानेके लिए. हररोज मिलसे उनकी वापसीकी राह देखनेकी और उन्हें देखते ही तुरंत दौड़ लगानेकी!

उन दिनों स्कूलमे बच्चोंके लिए मीड-डे-मील  जैसी शासकीय व्यवस्था लागू थी. हाँ , स्कूल शुरू होते ही एकाध प्याला दूध अवश्य मिल जाता था. मेरी म्युनिसिपल स्कूल घरसे मुश्किलसे दो सौ कदम दूर थी.उन दिनों आजकी तरह लंच बोक्स और वोटर बेगका फैशन था. इसलिए रीसेसमें घर आकर जैसीवैसी चाय पीनेकी और डामचियामें छुपायी रोटी खानेकी और तुरंत स्कूलका रास्ता नापनेका. दूरके चालसे आनेवाले कुछेक बालक मैदानमें, खिड़की पर या तो क्लासरूममें बैठकर घरसे लाया हुआ या तो स्कूलके बिलकुल बाहर खडे ठेलेसे खरीदा हुआ नाश्ता करते. मैं  पहली कक्षासे ही पढनेमें तेज था. इसलिए अध्यापक मुझे अपना निजी काम करनेको बोलते. लेकिन एनी छात्र अध्यापकोंके लिए नाश्ता लेनेके लिए जाते . खास करके गर्म गर्म पकोड़े लेनेके लिए जाते और रास्तेमे एकाध दो निकाल खाते सहपाठियोंकी मुझे ईर्ष्या लगी रहती थी. उनके निकाल लिए पकोड़ोंकी बात सुनते ही मूँहमें पानी जाता. आज तो रोगके घर जैसे शरीरको सम्भालनेके  लिए तरह तरहके परहेज करना पड़ता है, खास तो तली हुयी चीजोंका, लेकिन बचपन- किशोरावस्थाके दिनोंमें मुझे हमेशा तली हुयी चीजें खानेकी चटपटी रहा करती थी. उन दिनों छोटे कटोरे या छोटी टॉयली (लोटी) में तेल लाना होता था. जेठीबाई चालमें नारण सेठकी दूकान थी, दोपहर सेठ आराम फरमाते, तब नौकर दूकान संभालता, वह थोड़ा नमता तौलता, इसलिए तेल लेनेके लिए दोपहरको ही जाना होता था. उन दिनों पूड़ियाँ सिर्फ और सिर्फ शीतला सातमके  दिन ही मिलतीं, नाग पंचमीसे लेकर राँधन छठकी सांझ तक सस्ते अनाजकी दूकान पर  अगर सोयाबीन-पामोलीन तेल और मेंदा मिल जाता तो ही राधन छठको पूड़ियाँ बनतीं.

ऐसे अभावके दिनोंमें भी माँ-‘बाबड़े भाईको लाड लड़ाते. घरका सबसे बड़ा बेटा जैसे कुलदिपक, अतः उन्हें कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे. उपरसे वे अहमदाबाद्के सेंट झेवियर्स कोलेजके छात्र   इस लिए लाडके अधिकारी. हर सुबह माँ उनको ही तेलमें तली हुयी रोटी देती. बड़े भाई तो इतने सनकी कि रोटीके बीचका हिस्सा ही खाते, इर्द्गिर्द्की किनारको छोड़ देते. उनकी इस उदारतासे हमें लाभ ही होता था, माँ यह शेष हम   भाईबह्नोंमें बाँट देती थी, वही  था हमारा ब्रेक फास्ट.

चालका ब्रेक फास्ट भी कैसा? कुछ लोग चायके साथ ठेलेसे ख़रीदे टोस्ट खाते. ज्यादातर लोग पिछली रातका बचा हुआ खाते, कुछ लोग रातकी बची हुयी खिचड़ी चाय डाल कर खाते. रातके नॉन-वेज पुलावमें चाय डालकर खानेवाले किसीकोचायमें पुलावबुलाकर चिढाते. एक परिवारबंटी-बावटाके नामसे जाना जाता था  उस घरकी मौसीने कभी किसीको कहा होगा –‘बंटी-बावटा जो भी  मीले खा लेना चाहिए.’


मेरे नसीबमें था. तीसरी कक्षामें था तव एक पिकनिक कि जो मेरे लिए यादगार रहा. उस पिकनिकका हर पल मेरी आँखोंके सामने अब भी जसका तस मौजूद है. हमारे  स्कूलने  कांकरिया चंडोला तालाब और गाँधी आश्रमके पिकनिकका आयोजन किया .इसके लिए घरसे नाश्ता लेकर जाना था. बड़ी बहनने आलुकी सब्जी और पूड़ियाँ तैयार कर दी और पीतलके  डोलचेमें  नाश्ता लेकर मैं पिकनिकके लिए चला.कांकरिया या ऐसा कुछ देखनेके बजाय मैं तो नाश्ता करनेके लिए बेकरार था. हम दोपहर गाँधी आश्रम पहुंचे.अध्यापकोंने हमें गोलाकार  बीठाया, प्रार्थनाके बाद साथमे लाया नाश्ता करनेको कहा. अभी  डोलचा  खोलता ही हूँ कि एक कौआ आया और मेरे नाश्ते पर चरक कर का का करता हुआ उड़ गया.आसपास बैठे बच्चे हँस पड़े कुछेकको मेरी दया आयी, उन्होंने मुझे खानेका दिया. आज भी वृक्षाच्छादित गांघी आश्रमकी शीतलतामे जाना होता है तब एक जलन-सी होती है. गाँधी आश्रममें मैं  गांधीको नहीं उस कौएको ढूंढता रहता हूँ.


अह्मदाबाद्की चालमें बसते दलित समुदायके लिए मांसाहार कोई शौक नहीं, मजबूरी रही होगी.बड़े परिवारको सब्जीके बजाय ज्यादा पानी पच जाय ऐसा मटन ज्यादा किफायती रहता.दालभात हमारे लिए अमीरोंका खाना था. बचपनमे दालभात खानेके कम ही प्रसंग हुए है. जब सब्जीके लिए पैसे हों, तब माँ सिर्फ रोटी सेंक देती. हम गोमतीपुर गांवके उमियाशंकर लोजसे दाल ले आते. उस दालमे डाले कोकम और सिंगदानेकी खूश्बूसे मन तरबतर हो जाता. लेकिन गोमतीपुरके  बिनदलित सहपाठी दुकानसे तैयार दाल ले जा कर खाते है ऐसा कहेंगे  ऐसी शर्मके  मारे हम चुपके चुपके लूकाछिपी करते दूकान जाते थे यह याद करके भी बदन  सिहर  उठता है.


लोजकी याद करते ही कालू मामाका बेटा, बाबू याद आता है. अह हाथसे थोड़ा विकलांग ठा इसलिए हम सब उसेबबला ठूंठीयाबुलाते थे.मामा छोटी उम्रमें ही विधुर हो गए थे, माँने उनके बच्चोंको सम्भाला था. बाबू सरसपुरके  एक लोजमें काम करता था. एक बार लोजके  उबलते तेलमे उसका पाँव पड गया था, पांव बुरी तरह जल गया था  तब माँने ही कई दिनों तक उसकी देखभाल कि थी. हमारे परिवारके प्रति,खास करके माँ से उसे लगाव था. बाबुका मुख्य काम साइकिल पर ग्राहकों को घर घर टिफिन पहुंचाना था. कभी कभी बाबू टिफिन पहुंचाते पहुंचाते हमारे घर जाता था. प्रतिदिनकाबबला ठूंठीया

उस दिन बाबुभाई हो जाता था, क्योंकि वह टिफिनका बचाखुचा खाना हमें दे देता था. इस बचेखुचे जूठन- दालभात, रोटी,पूड़ी, नमकीन आदि पाते ही हमारी दिवाली हो जाती थी.

रोटीके टूकडेके लिए जहा जबान तडपती थी वहां हमें चोकलेटका   स्वाद कहाँ नसीब था? लेकिन हां, चोक्लेटके एवजमें पैसा और पैसेसे आटा खरीदना याद है. चालके हमारे घरके बिलकुल बगलमें हमारा एक छपरा था. तुलसीभाई नामके हमारे किरायेदार थे. वे अहमदाबाद म्युनिसिपल ट्रांस्पोर्टके  टूरिस्ट बसके कर्मचारी थे. अहमदाबाद दर्शनके दौरान प्रवासीओंको चोकलेट बांटना उनका काम था. वह बची हुई चोकलेट घर ले आते. हम उनका छोटा मोटा काम कर देते थे,तो वे हमें चोकलेट देते थे. ऐसी चोकलेट उन दिनों राजपुरर्की दुकानोंमें भी मिलती थी.

चालमें जैसे अभावमैं  जीनेवाले लोग थे वैसे छनाछन जीनेवाले परिवार भी थे. ऐसा ही एक परिवार मेरे बालसखा पूनमका था. वह हृष्टपुष्ट और गोलमटोल था, इसके चलते हम उसेपूनम मदनियुबुलाते.  उसके दादा और पिता बहुत अमीर थे, पूनमको काफी जेबखर्च मिलता था. मैं  तुलसीभाई से मिली चोकलेटके बारेमें मीठीमीठी बातें करता, चोकलेटका बखान करता, फुसलाकर पूनमको चोकलेट बेच देता , मिले पैसेसे मैं घरके लोगोंके लिए खानेका कुछ ले आता.


शहरमें कचरा बीनते बच्चोंमें मै मेरी छाया ढूँढता हूँ. वेकेशन या फुर्सतके दिनोंमें मैं भी कंधे  पर झोला डालकर बीननेके लिए जाता, लेकिन कचरा नहीं, हड्डियाँ. राजपुरकी दलित बस्तीमे मांस खुलकर खाया जाता था. हड्डियाँ कुत्तोंके चूसे जानेके बाद इधर उधर बिखरीं पड़ी रहतीं थीं हम उन्हें उठा लेते , झोलेमे इकठ्ठा करके संतराम कोलोनीके टिनवाली दढ़ियलकी  दूकान पर बेच आते. और कुछ पैसे पाते.


हड्डीयोंके बारेमे एक मजेदार वाकया याद आता है.१९८१ के आरक्षणविरोधी हमले खासे अरसे तक चले , राज्पुर्मे रहना कठिन हुआ, शासकीय सेवामे होते हुए काम पर  हाजिर रहना अनिवार्य था. इसलिए कुछ वक्तके लिए, मणिनगर रा  हाउस रहनेके लिए गए. वहां दलित-अदलित मिश्र बस्ती थी और प्राय: सभी बाशिंदे शाकाहारी. मटन खाए हुए काफी दिन गुजर गए थे , इसलिए एक दिन छिपाकर    हम मटन ले आये. चुपके चुपके पकाया और खाया. लेकिन सवाल ये रहा हड्डियोंका क्या करें? सोचा झोलेमे भरकर देर रात कही दूर फेंक  आयेंगे. रात हाथमे झोला लेकर निकले तो सही, सोसायटीके प्रवेशद्वार  पर एक युवा कुत्तेके साथ मिले. हम कुछ सोचें उसके पहले ही कुत्तेने झोले पर झपट्टा लगाया और सोसायटीके नुक्कड़ पर ही देखते ही बनी.

धानके दाने दानेका अभाव के बावजूद ऐसे दिन भी याद है जब पेट पर हाथ फेरें इतना खाया हो. राजपुरमें मच्छी भी बिकती थी और सर्दियोंमें हरा लहसुन भी.कुछ परिवारोमे गर्मीयोंमें आमका अचार बनता तो सर्दियोंमे वसाना.

हमारी चालमें, विशेषत: मेह्सानाके वणकरोंमें अपनी ब्याही लडकियोंको आमरस-पूड़ियाँके भोजनके लिए आमंत्रित करनेकी प्रथा थी जो आज भी बरकरार है.

आरक्षणके चलते एक के बाद एक भाईयोको शासकीय नौकरी मिलती गयी और परिवार . अब गरीबीको याद करना और उसके बारेमे बोलना-लिखना थोड़ी शर्मनाक बात मानी जाती है. धीरेधीरे राजपुरकी चाल बीछडती  जाती है , अहमदाबाद- गाँधीनगरके नये  आवासोंमें भरपूर चैनकी मुलायम जिन्दगी बसर हो रही है. आठ दशक पार कर चुकी माँको नाश्तेमें हर रोजबनिया रोटीउर्फ़ खाखरा ही पसंद है, सौ-दो सौ रूपयोंकी चोकलेट आरामसे चबा जाते भतीजों-भानजोंको टक टकी बांधकर देखता रहता हूँ. बचपन, किशोरावस्था और युवावस्थाकी मेरी कुपोषित देह  बार बार याद आती है. काला हांडीके कुपोषित बच्चोंकी  तस्वीरें मुझे अपनी ही तस्वीरे लगी है. मेरा शारीर इतना तो दुबला रहा है कि उसे आप मुठ्ठी भर हड्डियोंका माला कहे या तो खेतका  बिजूका. बचपनमें मैंने मेरे अंतर्गोल  पेट पर तसला बांध कर उसे समतल करनेकी कोशिश कि थी. आज मेरा  अंतर्गोल  पेट, बहिर्गोल हो चुका है . मेरे परिवार और दोस्त उसके बारेमे खासे चिन्तित है. लेकिन मैं उसके बारेमे  बिलकुल बेफिक्र हूँ क्योंकि ...