Saturday, October 23, 2021

अपूर्व अमीन की कविता


न ही छंद निकलता है
न ही अलंकार
न ही बाहर आता है हमारे शब्दों से श्रृंगार
मूंह खोलते ही 
चीखें निकालतीं  क्रुद्ध कविता निकलती है।
मधुर रस नहीं निकलता हमारे कंठसे
जैसे ही जुबान हिलती है, गाली निकलती है.
कुचली हुई क्रोधित कविता सदा ही व्याकरण हिन निकलती हैं
न ही हल्की  बूंदाबांदी में प्रेम कविता निकलती है
गला फटते ही तुरन्त बरसों से तपती गर्मियों में  दोपहर में खड़ी रखी आग निकलती है.
शातिर रोना नहीं आता हैं न ही कृत्रिम हास्य,
जैसे ही मुंह खोलते हैं नाखून गड़ाती जाति बाहर निकलती है.
हमारे लेखन में न ही फूल बाहर आते हैं
न ही झरने और प्रपात आते हैं
जैसे ही छिड़कते हैं स्याही, कुचले हुए हाथों में तेजाबी तलवारें बाहर निकलतीं हैं.
अगर शहरमें आँधी तूफान आ जाता है ,
कब्र चीर कर मुर्दे बाहर निकल आते हैं.
न छंद आते हैं , न ही अलंकार आते हैं
मुंह खोलते ही स्वर पेटी से रोक दिया गया था वह आक्रोश बाहर निकल आता है.

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