हे कवितादेवी
हे कवितादेवी,
मैं तुझे नचाने चाहता हूँ वास्तवके परदे पर.
हमने कभी
सप्तरंगी इन्द्रधनुका आनंद नहीँ लिया
उसी आकाशमें
एक्के बाद एक टूटते सीतारोंको देखकर
इन्द्र्राज्यसे मुझे पैदल ही घर लौटना है.
देख,
खंडहर छप्परकी खपरैलको हटा
कितनी राह देख रहे हैं.
परियोंके देसमें उड़ना सहल है,
तुझे पंख फूट आयें यह सहज है.
लेकिन चल कंटीली धरती पर, नंगे पांव.
बाद्लके घोड़े पर सवारी छोड़.
यहाँ बच्चे एकटक देख रहे हैं
स्लेट-पेन बगैर.
तेरे शब्दबद्ध देहसे उसकी वाचा निकलेगी क्या?
याँ फिर अगर-मगर?
तेरे श्रवणकेन्द्र
अभ्यस्त हैं सुननेके लिए
केवल मंजुल रव.
सूनी है कभी तुमने मनुष्यकी चीख?
तुझे याद रहती है तेरी सौन्दर्यलक्षी देह.
हरेक शब्द हमें मिलता है .
तुन फूलकर कुप्पा बन गयी हो ,
तुम फुदकती हो जैसे चिड़िया.
तुम अतिआनंदित हो गयी हो
देखकर सुन्दर रंगोली.
लेकिन मैं तुझे नचाने चाहता हूँ वास्तवके परदे पर
और समझाना चाहता हों बेलीके मुरझानेका अर्थ.
केंसर
दुःखकी भावनायें
दुस्वप्नकी तरह ताक लगाकर बैठी हैं
अनंतकालसे.
और मैं देख रहा हूँ
विस्फारित,लाल लाल सूखी आंखोंसे
जो मैंने कभी पहले नहीं देखा.
वृक्षकी पीठ पर विस्तीर्ण होती चली
केंसरगाँठ
और उसमेंसे लगातार रीसता
पीला,गाढ़ा पीप.
कहते हैं कि केंसर प्राणघातक रोग है
जो धीरेधीरे धूरेमें भिनभिनाते कीडोंकी तरह
खा जाएगा इन मूल्योंको.
सचमुच मुझे भी धीरेधीरे साक्षात्कार हुआ था
इस केंसरका.
प्रथमाचार्य बालकदेव गोकलदास
और सच्चे धार्मिक होनेका स्वांग रचानेके लिए
मेज पर रखी गयी गीता.
और चश्मेसे
कड़ी नजर झांका था
प्रहार करके फैंकी थी संटी
(छूत लग जानेके डरसे ही तो)
जो आरपार उतर गयी थी मेरे अस्पृश्य जिगरसे
बा.गो.की नेमप्लेटके साथ.
और उस प्रहारसे हुई सूजन
आज भी है यथातथ.
शायद
काल होगा वह पल, मेरे जन्मके वक्त.
रोग होगा वह पल,मेरे स्कूलप्रवेशके वक्त.
उद्वेग होगा वह पल, मेरे समाजके ललाट पर.
अजीब उलझनमें फंस गया हूँ बरसोंसे.
अब बा.गो.नहीं रहे
लेकिन केंसरके अनगिनत जंतु
बा.गो.की विरासतके तौर पर
सरपट भागते रहते हैं
सचमुच केंसर प्राणघातक रोग है
और वह लाईलाज है
फिर वही संटी,बा.गो.,अस्पृश्य सूजन.
अब एक के बाद एक पत्तेका गिरना ...
और वृक्ष हाँपता ही रहता हैं
हवाके झोंकेसे तड तड टहनियाँ टूट जातीं हैं.
यकायक आकाशमे
संध्याका लाल लाल रंग
अँधकारके साये लेकर
मेरी आँखोंमें कहांसे उतर रहा है
धीरेधीरे?
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