Wednesday, August 17, 2011

चंदू महेरियाकी कविता


 













 

काव्यका मूल्य
मेरे काव्यका मूल्य तुम समझ न पाओगे.
भले ही ‘नवचेतन’* उसे निश्चेतन समझे
‘कुमार’*की काव्यसृष्टिके लिए वह नेपथ्यवासी भली ही रहता
‘कविता’*को कविता द्वारा जीवित रखनेवाले मित्र
भली ही उसकी गणना अकवितामें करें.
एक समालोचक मित्र तो कहते रहते थे कि
‘शैली और भाषाके अनेक काले कलंक मौजूद हैं तुम्हारे काव्योंमें.’
‘कलंक ही काले नहीँ हैं, हमारा तो सूरज भी काला है.
‘काला सूरज’ लेकर हम तो बस निकल पड़े हैं ,
उसका उजाला तुम्हारी अंध आँखें पहचान न पाएंगीं.
भले  ही तुम न समझ पाओ मेरे काव्यका मूल्य !
मैं कवि होना नहीं चाहता,
मैं  तो विद्रोही  होना चाहता हूँ विद्रोही.
विद्रोह्का एक आध शब्द भी अगर ठाकुर वजेसिंघके बधिर कान पर
टकराएगा
तो मेरी द्रष्टिमें मेरे काव्यका मूल्य अमूल्य होगा. 

*गुजराती साहित्यिक पत्रिकाओंके नाम 

सावधान 

सावधान !
बीजलीका  दबाव ४६० वोल्ट !
हर २४ घण्टे, एक शुद्र श्वासका अंत.
हर बसंत,एक हत्याकाण्ड.
श्रमकी    भीख माँगता मानव हाथ .
फटेहाल यौवन भटकता.
अस्मिताका कुचला  जाना.
कन्याका कौमार्यभोग.
काले लहुके फव्वारे.
फिर भी
आकाश चुप ,
पृथ्वी चुप,
चुप सारे जीवजन्तु,
जगह जगह भटकते साये पानीके लिए ,
सर्वत्र  बालचीख.
हम अहमदाबादमें एस.सी.
खडोलमें लागी.
एक टुकड़ा रोटी,
चिलचिलाती धुप,  
एक रिज़र्वेशन,
और अनंत हत्याकाण्ड.
सावधान करना था न मुझे
जब मैं गर्भस्थ था !

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