Monday, August 8, 2011

पथिक परमारकी कविता














तब भी तो था मैं

ओमका अस्तित्व न था, तब भी तो था मैं,
शब्दका अस्तित्व न था, तब भी तो था मैं.

मैं ही सबका तात हूँ, कि वत्स मेरे
वर्णका अस्तित्व न था, तब भी तो था मैं.

धर्म, भाषा, प्रान्त, बोली-क्या है यह सब?
वर्गका अस्तित्व न था, तब भी तो था मैं.

वंशज मेरे,मेरी श्रद्धा थी केवल तुम पर
नर्कका अस्तित्व न था, तब भी तो था मैं.

हाँ, था पूरा विश्व निर्भान्त, निर्भय
वस्त्रका अस्तित्व न था, तब भी तो था मैं.

पुत्र, इश्वर तो है कोरी संकल्पना
तर्कका अस्तित्व न था, तब भी तो था मैं.

हे महंतो, मैं प्रथम मानव  हूँ विश्वका
बोधका अस्तित्व न था, तब भी तो था मैं.




क्यों रे बे तू लिखता नहीं?


क्यों रे बे तू लिखता नहीं?
लिख की मेरे गाँवका पोपट
रामनाम रटनेके  सिवा और   कुछ भी बकता नहीं.
देख तेरे इस गाँवमें कंकर फेंकनेवाले घूम रहे हैं खाखी कुत्ते
तैरते हैं उनकी आँखोंमें काले जहरीले सपोले ही सपोले
लिख की मेरे गाँवमें  भूखसे बदतर भीख लेकर भी कोई नहीं
होता है शर्मसार .
झाँक जरा तू कौन खडा सिसकीयाँ लेकर गाँवके छोर पर
कौन मचाता है हंगामा  आबरू लूटके दिनदहाड़े?
लिख कि चुपचाप यह सब देख्ननेवालोंको साँप भी काटता नहीं.
क्यों रे बे तू लिखता नहीं?

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