हम अल्ट्रा फैशनेबल लोग
हम खूब छैल छबीली जातिके लोग हैं..
हमारे पुरखे तो तीन बांहकी कमीज पहनते थे.
उनके पुरखोंके पुरखे तो
कफनको ही कम्बलकी तरह लपेट लेते थे.
उनके पुरखोंके पुरखे तो
सिर्फ त्वचाको ही ओढकर फिरते थे.
मैं भी कहाँ कम छैल छबीला हूँ.
सी.जी.रोडके शोरूमके सामनेकी
फूटपाथ पर झाडू लगाता था
तो सेठने दिया कलर-बटन –बांह बगैरका
बांडीया
सलमान खानकी तरह मैं सीना तानकर चलता हूँ,
संजय दत्तकी तरह अपने बाहु दिखाता फिरता हूँ.
सवर्णाओंको.
भद्र जातिके जवान तो
मेरे लिबासका लेबल देखनेके लिए उतावले हो जाते हैं.
बेच्चारे ,
मेरी गर्दंनको छूनेके सिवा उनको कैसे पता चलता कि
यह तो ओड साईजका पीटर इंग्लॅण्ड है.
हम तो खूब छैल छबीली जातिके लोग हैं.
कालिया
बेचारे कालियाको क्या मालुम
कि हम वीरता नहीं दिखा सकते?
गायके गुर्दे खाकर अलमस्त हुआ वह
हाउ हाउ करता बिजलीकी तरह दौड़ा
तेंदुएकी तरह टूट पडा.
उसने तो बस गला पकड़कर तहसनहस कर दिया मोतियाको
उसका दूधका कटोरा चौकमें
उसके गलेके पट्टेके मोती बिखर गए धुलमें
उसकी जबान बाहर निकल आयी
मुंहसे झागके बबूले फूलने लगे और फूटने लगे.
पूरा गाँव इकठ्ठा हुआ
‘ढ़ेडका सड़ा हुआ कालिया..
बेचारे मोतियाको फाड़ दीया
चलो, सब.
स्साले ये तो कुत्ते भी
सर पर चढ़ने लगे !’
और कालियाके पीछे लग गए .
कणबी और कोली और भा और बापू,
भाले, बरछी , दांती और लठ्ठ
और हो गया
लेकिन कालिया तो जैसे काल
वह तो दौडता ही रहा सीधा
उसके पीछे कितनोंने
और चाटने लगे धूल.
लेकिन कालिया तो जैसे काला हिरन
बस दौडता ही रहा, दौडता ही रहा
कहते हैं ना कि
थककर लौटा
और बिफर गया बस्तीमें.
कहते हैं न कि हारा हुआ लश्कर जाता दलित बस्ती पर.
लश्कर तो थका और लौटा वापस
और बिफर पड़ा दलित बस्ती पर.
खपरैल पर पड़े डंडे धडाधड
पीट दिया नीम और पीट दीया पीपल
पीट दी शिकोतरी१ की देहरी और फोड दी पूर्वजियों२की मटकी,
पीटी मेठली३ और पीटी मानडी३ ,
पीटा धूलिया३ और पीटा परमा३ .
खमा बाप खमा
कालिया तो जानवर
लेकिन आप तो मानुसदेव.
बेचारे कालियाको क्या मालुम
कि हम वीरता नहीं दिखा सकते?
१.देवी २.पूर्वज देवता ३.दलित स्त्री-पुरुषोंके नाम
मेरा साँवरिया
मेरे साँवरियाने मेरी हुंडी स्वीकार कर ली .
वर्ना गगलीका गौना कैसे निकलता ?
माँ चामुण्डाकी मन्नतने फल दिया
और जवान गरासनी हो गयी ढेर
उसकी अर्थी पर ओढाया गया है लाल लाल गवन१ .
लाल लाल चेह जलती है
और आकके पौधे पर लहराता है लाल लाल गवन !
गगलीकी माँ , सुसरी कैसी मुस्करा रही है !
बस्स, जैसे ही स्मशान आनेवाले लौट जाते है
मैं दौड जाती हूँ स्मशान
मेरे भंगीका भी है मसीहा
भगवान !
१.सन्दर्भ: नरसिंह मेहता, भक्त कविने बेटेकी शादीके लिए पैसा चुकानेके लिए भगवानको हूँडी लिखे थी, जो बनियेके रूपमें भगवानने स्वीकार करके पैसा चुकाया था
२..स्त्रीकी ओढनी
अनपढ़ होता तो बेहतर था
विज्ञान पढते पढते
न्यूटनका सेब जमीन पर गिरता देख
मुझे प्रथम विचार उसे खानेका आया था.
आशरम रोड परसे निकलते वक्त
कांचघरको देखकर
पहला विचार मुझे पत्थर फैंकनेका आया था.
रीसेसमे लगी प्यासको दबाते
पादरमें राखी प्याउकी मटकीको देखकर
पहला विचार मुझे कुत्तेकी तरह
एक पांव उठाकर उसमें मूतनेका आया था.
सियार घूमताफिरता शहरमें जा पहुंचा-
अकस्मात रंगरेजके हौजमें गिर गया-
रंगीन हो गया तो रंगमं आ गया-
जंगलमें जाकर राजा बनकर रौब झाड़ने लगा-
पकड़ा गया तो पाठ सीखाया गया –
ऐसे ढांचोंके आधार पर
एक्से ज्यादा अर्थ निकलें
ऐसी कहानी लिखनेके बजाय
मुझे अंतिम विचार अनपढ़ रहनेका आया था.
पढलिख कर
अपमानका होश आना और
निष्क्रियताको पोसना
उससे तो कहीं बेहतर है
अनपढ रहना
और अन्याय करनेवालोंके सिर पर आड़ीका प्रहार करना
या महुआ पीकर अपमानको गटक जाना.
मैं और बूढ़ी
स्साले चालीस-पचास सालसे शोरगुल मचाते रहते हैं .
फिर भी उनकी किसी बातमें बरकत नहीं.
दो पांच साल होते ही
चले आते हैं वोट मांगने.
किसे मालुम कहाँ जाते हैं
इत्ते सारे वोट?
कहते हैं की इस बार तो जंगमें हैं वालो नामेरी.
कहते हैं की आदमी भला है
बाबासाहबके वक्तसे ही
गरीबोंका काम करता है.
लेकिन इन राक्षसोंके बीच बेचारेकी क्या हैसीयत?
बोल बूढ़ी, क्या करेंगे इस बार?
तुम तो जनमसे ही भोले हो,बूढ़े .
करते रहते हो मुफ्तकी मेहनत-मजदूरी.
सूना है एकका दस मिलता है.
गाड़ी ले जायेगी और वापस छोड़ जायेगी.
बुढ़ापेमें दो घड़ी जीन्दगी जी लो.
पोटरी पानी पीना है तो पी लो.
वाला नामेरीका भगवान भला करे
लेकिन वोट तो पडेगा मनुभाईको ही.
जाओ, जाकर मोल लगाओ,
कहना दो हैं:
मैं और बूढ़ी
(२)
भई, सूना है एकका दस मिलता है,
बारह दोगे तो,
दो है:
मैं और बूढ़ी.
बहुत नहीं है
दो दहाडीके मोल हैं.
हमें दो घड़ी विसराम,
छुट्टी मेहनत-मजदूरीसे.
अगर नहीं, तो हम तो ये चले
हड्डीयों बटोरने.
मगा मेहतर एक थैलेका पांच देता है.
साँझ पड़े रोटी मिल जाय
बहुत है.
भई सौंपा तुम्हें राज और पाट.
हमें तो मुबारक दर दर भटकना.
बता दो, दिन चढ रहा है
और बूढ़ीको देर हो रही है.
पापमें पढ़ना है,
लेकिन जो बोला, निभाना है.
इसी लिए वोट तो पक्का मनुभईको
बोलो: देने है एकके बारह?
दो हैं:
मैं और बूढ़ी.
***
अनपढ़ होता तो बेहतर था
विज्ञान पढते पढते
न्यूटनका सेब जमीन पर गिरता देख
मुझे प्रथम विचार उसे खानेका आया था.
आशरम रोड से गुजरते वक्त
कांचघरको देखकर
पहला विचार मुझे पत्थर फैंकनेका आया था.
अवकाशमें लगी प्यासको दबाते
गाँव सिवानमें राखी प्याउकी मटकीको देखकर
पहला विचार मुझे कुत्तेकी तरह
एक पांव उठाकर उसमें मूतनेका आया था.
सियार घूमता-फिरता शहरमें जा पहुंचा-
अकस्मात रंगरेजके हौजमें गिर गया-
रंगीन हो गया तो रंगमें आ गया-
जंगलमें जाकर राजा बनकर रौब झाड़ने लगा-
पकड़ा गया तो पाठ सीखाया गया –
ऐसे ढांचोंके आधार पर
एकसे ज्यादा अर्थ निकलें
ऐसी कहानी लिखनेके बजाय
मुझे अंतिम विचार अनपढ़ रहनेका आया था.
पढ-लिख कर
अपमानका होश आना और
निष्क्रियताको पोसना
उससे तो कहीं बेहतर है
अनपढ रहना
और अन्याय करनेवालोंके सिर पर आड़ीका प्रहार करना
या महुआ पीकर अपमानको गटक जाना.
आड़ी , मृत पशु को ढोने के लिए इस्तेमाल होती लकड़ी
***
मैं तेरी ही प्रतीक्षा कर रहा हूँ
तूने अंजूरीभर अमृतबानी छिड़की
और सवर्णी शापसे शल्या हो गये
खंडहर देह महक उठे.
तूने बस्ती बस्ती बोयी विद्या
और उसकी आभासे उजली हो गयी अछूतोंकी औलाद
तूने झाड़ू उठा लिया और साफ़ कर दिए कूड़े-कचरेके ढेर.
हमारे कीचड़-सने देह हो गये साफसुथरे
तूने संविधानकी किताबमें लिखे छठके लेख
और बे-पैरको मिले पैर
बेगारोंको मिली वाचा
पंगुओंको पर
अन्धोंको आँख.
बाड़से छूटे बछडोकी तरह
सब करने लगे कूदाकूद
जोश मिला, जवानी मिली, उल्लास मिला, आशा मिली.
और सबने अनगिनत सूरज-नक्षत्र पा लेनेके लिए दौड़ लगायी.
किसीने खादी टोपी सर पर रख दी.
किसीने खाखी वर्दी बदन पर चढ़ा ली,
किसीने टेबुल-कुर्सी अपने नाम कर लिये
तो किसीने दलित कविता गानेके बहाने
मूंह पर मेक अप लगा लिया और दूरदर्शनके रूपहले परदे पर
स्वयंको मढ लिया.
लेकिन दलित-दीन –दुःखी कुचल दिए जाते रहे
मारे उसकी तलवार.
माना-मेंठी अमथा-तखी१
सेना-नाडिया, भंगी-हाडी२
सब पीड़ित रहे पाताल , कराहते रहे
और फिर भी अंतिम सांस तक
भीमधून रटते रहे.
बाबासाहबकी जय हो ! बाबासाहबकी जय हो!
किसीके सर कलम होते है.
किसीके कलेजेमें छेद होते है
किसीका कच्चा मांस भड़भड सुलगता हे
किसीकी आबरू सरेआम लूट ली जाती है
किसीके सरपर अब भी मैलेके मंडुए महकते है
किसीकी हाँडीको अब भी आगका इन्तजार है
तो कोई आरक्षण-पाया एपार्टमेंटके हालमें
इन चीखोंकी जुगुप्साको भूलनेके लिए
रंगीन चेंनलकी तलाशमें लोटता रहता है.
यह हाल है तेरे संघर्षके सपनोंका
तेरे मुक्तिके मंसूबेका
तेरे अन्तेवासीयोंके हृदय अनराधार रोते रहते हैं.
तूने तो कवच-कुण्डलके बगैर ही
एक्लव्यकी तरह आराधना करके
उपेक्षित और अकेले रह कर भी युद्ध छेड़ दिया था
काशीके पण्डितोसे ठुकराये गये तूने
विलायतकी विद्यापीठोका सेवन किया
तूने तीक्ष्ण तीरसे मेरे गलेमें लटकती कुल्हड़ ही नहीं
अवरूद्ध रूदन भी बींध ड़ाला
और विषादबानीके आदिम पानीकी धारा प्रवाहित पड़ी.
मुहल्ले मुहल्ले वाल्मिकी और रैदास पुनर्जीवित हो उठे
दलित कविताके आक्रंद और आक्रोशके डमरू बज उठे.
लेकिन आज छगनभाइकी रेली
और कल मगनभाईकी महारेली
बैण्ड-बग्गी और नेताओंकी आवभगत होते रहते हैं तेरे बहाने
आज जयघोष के बुलन्द नारोंके नशेमें
दलित-दीपावली मनाई जाती है
और ‘धम्म सरण गच्छामि’की ललकार
डूब गयी है उसमें.
हजार हजार मनकी फूलमालाओंके ढेरके तले
तेरी दिशादर्शक तर्जनी पर पर्दा पड गया है.
आज १४ अप्रेलकी भोर
मैं १००८ ट्रक पर सुशोभित शोभायात्रा नहीँ
इक्कीसवी सदीके अल्लाउद्दीनके बिलौरी सूरजकी नहीँ
बल्कि तेरे पुनरावतारकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ
मेरे दीनबंधू, दलितमित्र!
यह सारंगपुरकी३ प्रतिमा फट जाय
उसके कणकणसे पावक – आग प्रज्बलित हो उठे
उसका प्रसाद घर घर पहुँचे
तेरा पुनरुत्थान हो तेरी पत्थर प्रतिमासे
तेरी संवेदनाका हमें फिरसे साक्षात्कार हो
भूले-भटके दूबारा अपने बांधवोंको गले लगायें
तू इस काली रातके गर्भको चीर कर
तेरी संतानोंमें अवतार धारण कर.
१.दलित स्त्री -पुरुषोंके नाम
२.अति पिछड़े दलित पेटा-जाति
३.अहमदाबाद रेलवे स्टेशनके पास स्थापित दो.अम्बेडकर प्रतिमा, जहाँ १४ अप्रिलको कार्यक्रम होते हैं
***
नामशेष
किस शैतान शिल्पीने पैदा होते ही
मेरे ललाट पर गोद दिया है मेरा नाम?
मेरी रक्तवाहीनियों में चाकू डूबो डूबो कर
पेड़ के तने पर गोदते हो
वैसे मेरी संज्ञा को क्यों गोदते रहते हो?
मैं तो भूल जाना चाहता था मेरा नाम
इसीलिए तो मध्यरात्रि को भाग निकला था एक बार
घर गाँव छोड़कर शहर की ओर
यहाँ आकर मैंने मेरे नामकी छड़ी पुकारते
झाड़ू के बाँस पर फहराया गया इन्क़िलाब का ध्वज
मेरे नाम की संरचना के अणु अणु को
मैंने घुला दिया है
कॉस्मोपोलिटन कल्चर के द्रावण में।
मेरे नाम की केंचुल उतार कर
मैं हो गया हूँ निर्मल और नवीन
अभीतक खोजे न गए कोई नवीन तत्व जैसा।
माईक्रोस्कोप की आँख को भी मेरी पहचान नही रही
लेकिन गिद्ध जैसी तुम्हारी आंखें
क्यों मेरे नाम के मुर्देको चोंच मारतीं रहतीं हैं?
अरे, मुझे तो दहशत है
मेरी चिता के साथ भी न मरेगा मेरा नाम!
***
मी टू
मुंह अंधेरे ही मैं आती हूँ
पाखना साफ करने
और हर दिन एक साया
मुझे उठा ले जाता है
वीरान कोनेमें.
मुझे दबा देता है जमीन के साथ
चढ़ जाता है मेरे ऊपर
सुव्वर की तरह.
कोचता रहता है मुझे
बेसुध हो जाऊं तब तक.
मुझे याद नहीं, साहब.
मुझे हल्का सा याद आता है
उसके देह पर थे सुतर के तीन धागे
गलेमें तुलसी माला.
और चेहरे पर थी
बिच्छूके डंक सी घनी मूछें
वह बुदबुदाता था
'हरे हरे'जैसा कुछ.
मेरे उपरसे उतर कर
वह भागता था
सीधा गंगा की ओर.
***
फ़ांसीकी डोर
कालूजी ,कितने साल हुए?
थोड़े बहुत तो किसने गिने?
लेकिन केवडिया से कच्छ पहुँचनेमें लगते उतने।
मतलब?
बापू कहता था नरबदा के लिए
जिस दिन हमारे घर, गांव, परबत,जंगल ने जलसमाधि ली उसी दिन मेरा जनम हुआ था।
और यह नहर खोदते खोदते
यहां कबाड़ी सेठ के कारखाने तक पहुंचा
और आपने पूछा।
मतलब?
बापू कहता था कि नरबदा के किनारे
हम लोगों को खुशी ही खुशी थी।
मूठी ज्वार फैंकी
कि धरती माता पूरे सालकी रोटी देती।
उपरसे जंगल के फल और भम्मरिया मध,
नदी की मछली और महुआ के घडे
माताजी के मेले और मेलेमें पावा,
नाचो, गाओ,झूमो!
माँ उसे वहीं मिली थी।
बापू कहता था
यह नहर निकली
उसीके साथ हम भी लंगोटी पहने निकल पड़े थे
त्रिकम औऱ कुदाल ले कर।
बिदेस
न मिलते हैं अपने लोग
या न मिलता अपना मुलक
सब तितरबितर।
लेकिन नया देस,नये लोग देखने तो मिले न?
खोदते खोदते सर ऊंचा हो तब न?
फिर भी ऊंचे सर कुल मिला कर थोड़ा ही देखा।
क्या देखा?
नहर के किनारे बड़े लोगोंके महल देखे।
नहर के किनारे बड़े लोगोंके उत्सव देखे।
नहर के किनारे पटेल की हरी भरी बाड़ी देखी।
नहर के किनारे शहर के जलसाघर देखे।
लुगाई कहाँ?
शहर के कूड़ादान से बीनती होगी प्लास्टिक, चिथडे।
और बच्चे?
किसी साहूकार के घर झाडूपोछा करते होंगे
या कोई कुनबी के यहाँ गोबर उठाते होंगे।
कालूजी,जलसागर के किनारे पर जीवन?
हमारे लिए तो जल ही जीवन
और जल ही मृत्यु।
बापू कहता था नरबदा तो हम लोगोंकी जीवनडोर
लेकिन यह नरबदा की नहर तो मेरी फ़ांसीकी डोर।
केवडिया से कच्छ पहुँचनेमें
पूरा हो गया इस जनम का फेरा।
***
कालचक्र
सरयू तट पर बहुत सितम हुए
कभी ऋषि शम्बूक का वध हुआ.
कभी ईश्वर अल्लाहके घर तोड़े गये.
सीता और शूर्पणखा को सताया राजा ने.
श्याम को लगा
मरु भूमि में सोख गयी सरस्वती किनारा पर जा बसता हूँ.
वाल्मीकि बन जाऊं तब तक तपस्या करता हूँ.
सूपा झाड़ू लेकर
गधे पर बिराजमान शीतला माता के स्थानक पर ले गयी माँ.
"बता, त्रिशूल दीक्षा दूं या तलवार दीक्षा?"
माँ ने कहा:" कलम दीक्षा दो उसे,खुदका और औरों का भला करे।"
सती रूपकुंवर के श्मशान घाट की छतरी के सायेमें श्याम ककहरा सीखा.
कभी मरे बिल्ली कुत्ते की बाबागाडी खीँचते खेलता भी.
शाम के खाने में राजभोग जैसी जूठन की कॉकटेल भी मजे से जीमता.
नगर का मैला सिर पर ढोती
माँ के साथ छोटा सा श्याम राजमार्ग पर चलता है
और जोधपुर नरेश गजराज सिंह की सवारी को अपसगुन होते हैं.
"माँ, सब लोग हमें हट.. हट.. क्यों कहते हैं, जहां भी जाएं?"
"चुप, कितनी बार कहूँ, भंगी हैं हम इस लिए।"
श्याम उलझनमें पड़ गया: " किरपाण दीक्षा लूँ या कलम दीक्षा?"
छात्र श्यामने अपने बंधुओं के लिए लिखा एक आवेदन पत्र:
1. हरेक वाल्मीकि को जजमान के परिवार के सदस्यों की संख्या के मुताबिक प्रतिदिन का एक आना और दो ताजी रोटी देना.
2. पाखाना और सफाई के अलावा और किसी काम के लिए अलग और वेतन देना होगा . बेगार पूरा का पूरा बंद.
3. सिर पर मैला न ढोयेंगे, गाड़ी देनी होगी
लेकिन राजस्थान हाईकोर्ट के प्रांगण में तो थी मनु की प्रतिमा,
अम्बेडकर संहिता का अमल न हो जाय कहीं!
लेकिन श्याम तो था एकलव्य का अवतार.
द्रोण के पुतले की आँख, मस्तक,हृदय ही
हो गये उसके लक्ष्य.
स्नातक हुआ, अनुस्नातक हुआ,
अध्यापक हुआ, प्रोफेसर हुआ,
मेहतर मीट गया ,
मास्टर हुआ.
रूखी मीट गया,
ऋषि हो गया.
आया 29 फरवरी,1996 का दिन.
जोधपुर किले के द्वार पर
फूलमालाएं लेकर खड़े हैं
नरेश गजराज सिंह
वाइस चांसेलर श्यामलाल के स्वागत के लिए.
श्याम को याद आता है,
चार चार गोल्ड मेडलसे विभूषित
अश्वेत ओलिम्पियन जेसी ओवेन्स के साथ हेंड शेक किये बगैर भाग गये हिटलर की.
कौए गिद्ध का मैला सिर पर ढोता
मनुका पुतला शर्म से सुलग रहा है.
एक वाल्मीकि वाइस चांसलर हो गया है.
एक चमारिन अयोध्या की महारानी हो गयी है.
देश का राजा दलित नारायण है.
कालचक्र एक वर्तुल घूम गया है.
जोधपुर यूनिवर्सिटी के वाइस चांसेलर प्रो. श्याम लाल के जीवन पर आधारित
***
चरण धोने दो मुझे रघुराय
गोललिमड़ा से गुरुजी पधारते थे
और माँ दौड़ कर ले आती थी पित्तल का थाल पानी से भर कर.
अतिथि हो कर आये प्रभुजी के पांव धोती
और उनके हाथसे ही चरणामृत लेती,
गंगाजल से भी पवित्र पानी की अंजुरी पीकर पावन हो जाती.
बापु यह तमाशा देख कर आगबबूला हो जाते थे.
पक्का खाना खा कर,
प्रति घर मन-दो मन दानों की वरसूंद लेकर
गुरुजी अपने सेवकों के संग दूसरे गाँव की दलित बस्ती के लिए रवाना हो जाते.
चमड़ा सिर पर उठाये शहर जाते बापु ने देखी है गुरुजी की आकाश को छूती हवेली,
उनके कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स
और माँ की मिट्टी से बनी झुग्गी भी.
ख़बरोंमें है कि मंत्रीजी ने कुम्भमेले की सफाई कामगार महिला के चरण धोये और चरणामृत भी लिया,
वे चरण जो दिन प्रतिदिन विष्टासे थे सने हुए.
हाँ, मंत्रीजी तो कहते हैं
दलितों की यह समाजसेवा आध्यात्मिक कर्म समान पवित्र और पुण्यशाली है.
सफाई कामगार तो ब्रह्मर्षि के समान आदरपात्र हैं.
उनके पूर्वजों की पीढ़ियों की तरह
प्रत्येक वाल्मीकि को चाहिए यह समाजसेवा.
यह आध्यात्मिक सेवामें जिंदगी गुजारनी चाहिए,
तो लोग मेरी ही तरह
उनके चरण धोयेंगे
और चरणामृत लेंगे.
बापु अगर जिंदा होते तो आगबबूला हो जाते उस अबोध दलित महिला पर
और शायद दया भी आयी होती उस वाल्मीकि वृद्धा पर.
उसे क्या मालूम मंत्रीजी तो उनकी पंचवर्षीय वरसूंद लेने निकले हैं,
मंत्रीजी उनके राजधार्मिक कर्ममें आध्यात्मिक आनंद ले रहे हैं,
और दलितनारायणीओं को उनके विष्टासफाई कर्म में आनंद लेने के लिए,
गौरव महसूस करनेके लिए कहते हैं.
यह चरणामृत पीते पीते
मैं मंत्री बन कर देशसेवा करता रहूं,
और अछूत रह कर आप समाजसेवा करते रहें.
वरसुन्द - प्रतिवर्ष मिलनेवाला लगान, दक्षिणा
***
रिंग मास्टर
हमने ही तो उसको नियुक्त किया था
कि सर्कस को वह चलायेगा अच्छी तरह,
सर्कस का भरपूर आनन्द उठाने के लिये.
हम सब रसिक जन हैं सर्कस के.
हम जानते थे कि
एकदूजे के दुश्मन को
एक ही चाबूकसे वह सीधा कर सकता है.
हाथी, घोड़ा,बाघ, शेर,
सबको वह फ़टकारता था
और अपनी चलाता था.
शॉ देखनेवाले हम सब तालियां बजाते थे.
रिंग मास्टर के कमाल के दिल खोल कर प्रसंशा करते थे.
देश को विदेश जैसा शानदार बनाने के लिए हमें लगा
इसे राजा बना दें
तो कोई न करेगा ना-नुकुर.
सब काम हो जायेंगे तेजीसे,
विकास हो जायेगा सबका तेजीसे.
सब अनुशासनमें रहेंगे,
सांविधानिक अधिकार भुगतेंगे
और फ़र्ज अदा करेंगे
लोकमत से रिंग मास्टर तो राजा बन गया
दो पांच सालमें वह सिंहासन का आदी हो गया
उसे चिंता होने लगी
लोकमत बदल गया
और सिंहासन चला गया तो?
उसने उसके रिंग मास्टरी करतब दिखाना शुरू कर दिया.
प्रजा प्रजा ही न रहे, लोक लोक ही न रहें तो कैसा?
अपना ही रहेगा सिंहासन यावतचंद्रदिवाकरौ.
उसने जातियों को जातियों के विरूद्ध,
कौमों को कौमों के विरूद्ध,
धर्मों को धर्मों के विरुद्ध,
किसान को उद्योगपति के विरुद्ध,
मजदूर को मालिक के विरुद्ध,
मतदाता को मतदाता के विरुद्ध,
प्रजा को मिलिटरी के विरुद्ध
पुलिस को सी बी आई के विरुद्ध,
सेन्टर को स्टेट विरुद्ध,
न्यायालय को नागरिक विरुद्ध
खड़े कर दिये
रिंग मास्टर मजे ले रहा है यह अभूतपूर्व अफ़रातफ़री के
और आंतरिक इमरजंसी के.
उसे तो बहुत चैन है.
वह तो बंसी बजाने में मस्त है
बस, आपसमें लड़ मरो.
सलामत हूँ मैं
और मेरा सिंहासन.
***
बोधिवृक्ष
मैं चीवरमें हूँ.
मेरे हाथमें है भिक्षापात्र.
लेकिन मैं नहीं हूँ गरीब ब्राह्मण.
गोदान या सुवर्णदान
भूदान या अन्नदान
या कन्यादान कर के पुण्य कमानेका उपदेश देने नहींआया हूँ.
आपके दान दक्षिणा के बदलेमें
कल्पवृक्ष
कामधेनु
या अक्षयपात्र देने नहीं आया हूँ मैं.
न ही मैं आया हूँ आपको देने
सन्ततिमन्त्र
संपत्ति मन्त्र
या विजय मन्त्र
न ही शत्रुंजय मंत्र
या मृत्युंजय मंत्र
या संजीवनी मंत्र देने आया हूँ.
मेरे भिक्षापात्रमें तो हैं बोधिवृक्षकी नवपल्लवित कलम,
मैं तो बाँटने चला हूँ बस्ती बस्ती.
ना, यह नहीं है मनीप्लांट
न ही क्रिस्टम्स ट्री.
इस बोधिवृक्ष का एक पत्ता भी चबा लेंगे,
आप बन जाएंगे स्वयंप्रकाशीत दीपक,
करूणा, प्रज्ञा, मैत्री, समता की ज्योतिकोंपलें निकल आएंगी.
आप पामर न रहेंगे,प्रबुद्ध हो जाएंगे.
आप वामन से विराट बन जाएंगे.
इसके लिए मुझे न चाहिए कोई दान-दक्षिणा
में नहीं हूँ गरीब ब्राह्मण.
मैं तो श्री को तज कर आया
श्रमण हूँ बुद्ध का.
चीवर में हूँ.
और मेरे हाथमें है भिक्षापात्र
पांच घर से पांच ग्रास ही समो सके वैसा.
***
कवि और कॉमरेड
प्रो वजेसिंहभाई
आप को शब्दों के पारखी हैं,
देखो जरा,
मेरे नाममें ऐसा क्या कुडा भरा है
कि सवर्णोंको वह इतना खटकता है?
शेक्सपियर तो कहता है
नाममें क्या धरा है?
कमल को पंकज कहेंगे
तो क्या सरोवर उसे प्यार करना बंद कर देगा?
पारगी साहब, आप तो कवि भी हैं.
मेरे लिए सोनेचांदी का कोई शब्द गढ़ दो ना!
जैसे कि शकरा के स्थान पर सम्राट
या कालिया की जगह कुंदन!
ऐसा अक्षर मेल बिठा दो,
अलंकारोंसे ऐसा सजा दो,
ऐसी पर्त चढ़ा दो
कि किसीको पता ही न चले
की यह परमार है कि पटेल
और जो भी मुझे सताते हैं
मुझसे प्यार करने लगें,
मुझे आदर देने लगें.
भाषाशास्त्री पारगी साहब
आप तो जानते ही हैं मैं जानवर नहीं हूँ, इंसान हूँ.
क्या आप मेरे लिए कोई ताजा ही शब्द
उपमा,इमेज,मेटाफर गढ़ न सकेंगे?
लम्बा निश्वास छोड़ कर वजेसिंहभाई ने कहा:
कालू, शब्दों का तो खजाना है मेरे पास
मिन्ट फ्रेश और एक से बढ़ कर एक.
सुविनित कोष का ताज़ा परिशिष्ट मैंने ही तो लिखा है
लेकिन अफसोस, शब्दों को अर्थ
तुम या में नहीं,
कोई अन्य , तीसरा ही देता है।
वे सारे के सारे
सवर्णों का साया पड़ते ही काली रूशनाई हो जाते हैं
गन्दे कूडे-से हो जाते हैं
तेरे लिए तो ज्ञानपीठ विजेता कवि भी काम न लगेगा,
तुम्हें कवि की नहीं क्रांतिकारी की जरूरत है
जो पुराना तोड़ताड़ दे
और इसके पश्चात नवनिर्माण करे.
अगर जल्दी में है तो चला जा कॉमरेड सरूपा ध्रुव के पास,
अगर धैर्य है तो जा बाबा भीमराव के पास.
***
एक कुत्ता द्विज हुआ
शास्त्र चाहे सो कहें
मैँ तो कहता हूँ विप्र वदता है
वही है वेदवाक्य
वह अंजुरी भर कर छिड़कता है जल
तो गोबर भी हो जाता है पवित्र
और लोग उसका प्रसाद भी लें
जनेऊ तो जानवर को भी दे सकते हैं
अगर वह ज्ञानेश्वर की भैंस की तरह गीतागान कर सके
थाल भर के सोनामुहर दो
तो वे शुद्र शिवाजी को क्षत्रिय जाहिर के सकते हैं.
और यह अल्सेशियन कुत्ते की बात ही कुछ और ही है.
उसे गोमांस नहीं
यवन मलिच्छ चाण्डाल जैसे
विधर्मी अधर्मी का मांस बहुत पसंद है.
वक्त आने पर वह मनुके धर्मशास्त्र के श्लोक वह गुर्रा सकता है
कौटिल्य के अर्थशास्त्र की आयतें भी भौंक सकता है
यह वफादार श्वान तो अपना सनातनधर्मी सेवक है,
अरे, स्वयंसेवक है
और है गौब्राह्मणप्रतिपाल भी.
मैँ गीगा भट्ट इस ब्रह्म सभामें
आज्ञा देता हूँ,
उसके गले का पट्टा तोड़ दो.
उसके उपनयन संस्कार करें
और उसे खुला छोड़ दो.
में उसे द्विजोत्तम जाहिर करता हूँ.
शास्त्र चाहे जो कहैं
विप्र वदता है वही वेदवाक्य!
***
कवि हूँ
कवि हूँ मैं.
सताए गये पंछीका रूदन भी में सुन सकता हूँ.
शोक को पिघला कर श्लोकमें ढालने का काम मुझे सौंपा गया है.
मुझे वरदान मिला है क्रान्त दर्शन का.
में भविष्य भाख सकता हूँ.
मुझे किसीने पैगम्बर नियुक्त किया है:
इसी लिए ही उपदेशक बन कर संदेसा पहुंचाता हूँ,
गांव दर गांव शहर दर शहर.
मेरा तो फर्ज बन जाता है
विषाद से विश्राम देनेका.
मेरा अधिकार हो जाता है
अन्धकार से आगाह करनेका.
कवि हूँ मैं.
नायक नहीं हूँ मैं
कि नेतृत्व कर सकूं.
ईश्वर नहीं हूँ मैं
कि आख़िरत से बचा पाऊं.
महज कवि हूँ मैं.
***
वॉन्टेड पोएट्स:
एक फंतासी
'शिक्षक या नर्स न हो प्रत्येक गाँवमें, चलेगा.
लेकिन हर गाँवमें एक कवि तो होना ही चाहिए.'
ह्यूमन रिसोर्सिज़ मिनिस्टरने नहीं,
लेकिन नीरो के चाणक्य ने यह प्रपोज़ किया,
इलेक्शन स्ट्रेटेजी की मीटिंग में.
साढे चार साल बाद पत्रकार खबर लाये हैं:
अनगिनत जनसमूहों की वाचा को हमने छीन लिया है.
उनकी कोई कविता टेक्स्ट बुक या सरकारी मुशायरों में सुननेको मिलती है?
मीटिंग में सन्नाटा छा गया
लेकिन पूरे देशके समाचार पत्रोंमें
पहले पन्ने पर नेक्स्ट डे न्यूज़ आये:
'पोएट्स वॉन्टेड'
एनीबड़ी एण्ड एवरीबड़ी
केन अप्लाय.
एज्यूकेशन नो बार, ऐज नो बार,
कास्ट क्रीड सेक्स नो बार.
देश हो गया
वडनगर के चाय वाले से लेकर
विसनगर चौराहे पर बैठते मोची
सभी बेरोजगार अर्ध बेरोजगारों ने आवेदन पत्र ठोंक दिया.
लेकिन स्साला कवि कैसे होना है?
कविता तो साहित्य परिषद की या साहित्य अकादमी के क्रिएटिव वर्कशॉप के सात शुक्रवार में हाजिरी देता है ,उसे ही आती है।
देखो, सब लोग डायरा और मुशायरेमें कैसे वाहवाही बटोरते हैं?
देश का जन जन भटक भटक कर थका हारा, निराश हो गया.
पण्डितों ने तो पल्ला ही झाड़ दिया:
माँ सरस्वती के आशीर्वाद सबको कैसे मिलते?
और उस्तादों ने बता दिया:
चाय वाला या पकौड़ा वाला
पोएट कैसे बन सकता है?
युवा के बेकार टोले मेरी फंतासीमें आ कर मनुहार करने लगे:
थोड़ा समजा दो न ,साहब
'कविता मतलब?'
चले जाओ, मनीषी जानी के पास.
वे कहते हैं,
कविता माने कविता,
'कवि जो लिखता है सो कविता'
जैसे कि 'जो लिखता है सो लेखक.'
ऐसी ब्रॉड और बोल्ड व्याख्या
करने की हिम्मत या समझ
लिटरेचर के किसी प्रोफेसर के पास न होगी.
और अगर होगी तो वह अवश्य
कर्मशील -कम- कवि होगा.
क्रिएटिविटी हर किसीमें होती है
और अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी हर किसीको होनी चाहिए.
कवि आज़ाद हो गये.
कविता आज़ाद हो गयी.
आत्मविलोपन-लिंचिंग- बलात्कार-बेरोजगारी-गरीबी-
शोषण-दमन के करूण वास्तव की अभिव्यक्ति की जैसे बाढ़ आ गयी.
हर चौराहा-चकला, बस्ती- मुहल्ला
गाँव- शहर के नोटिस बोर्ड पर
पीपल्स पोएट्री छलकने लगी
निजी उर्मियों की अभिव्यक्तिमें माहिर शायर और कवि को भी लगा:
हवा बदल गयी है.
लेकिन अफसोस,
इस क्रांतिकारी हवा के साथ ही मेरी फंतासी भी यकायक अदृश्य हो गयी.
***
गुजराती दलित कविता
नीरव पटेल
अनुवाद: डॉ. जी. के. वणकर
वॉन्टेड पोएट्स:
एक फंतासी
'शिक्षक या नर्स न हो प्रत्येक गाँवमें, चलेगा.
लेकिन हर गाँवमें एक कवि तो होना ही चाहिए.'
ह्यूमन रिसोर्सिज़ मिनिस्टरने नहीं,
लेकिन नीरो के चाणक्य ने यह प्रपोज़ किया,
इलेक्शन स्ट्रेटेजी की मीटिंग में.
साढे चार साल बाद पत्रकार खबर लाये हैं:
अनगिनत जनसमूहों की वाचा को हमने छीन लिया है.
उनकी कोई कविता टेक्स्ट बुक या सरकारी मुशायरों में सुननेको मिलती है?
मीटिंग में सन्नाटा छा गया
लेकिन पूरे देशके समाचार पत्रोंमें
पहले पन्ने पर नेक्स्ट डे न्यूज़ आये:
'पोएट्स वॉन्टेड'
एनीबड़ी एण्ड एवरीबड़ी
केन अप्लाय.
एज्यूकेशन नो बार, ऐज नो बार,
कास्ट क्रीड सेक्स नो बार.
देश हो गया
वडनगर के चाय वाले से लेकर
विसनगर चौराहे पर बैठते मोची
सभी बेरोजगार अर्ध बेरोजगारों ने आवेदन पत्र ठोंक दिया.
लेकिन स्साला कवि कैसे होना है?
कविता तो साहित्य परिषद की या साहित्य अकादमी के क्रिएटिव वर्कशॉप के सात शुक्रवार में हाजिरी देता है ,उसे ही आती है।
देखो, सब लोग डायरा और मुशायरेमें कैसे वाहवाही बटोरते हैं?
देश का जन जन भटक भटक कर थका हारा, निराश हो गया.
पण्डितों ने तो पल्ला ही झाड़ दिया:
माँ सरस्वती के आशीर्वाद सबको कैसे मिलते?
और उस्तादों ने बता दिया:
चाय वाला या पकौड़ा वाला
पोएट कैसे बन सकता है?
युवा के बेकार टोले मेरी फंतासीमें आ कर मनुहार करने लगे:
थोड़ा समजा दो न ,साहब
'कविता मतलब?'
चले जाओ, मनीषी जानी के पास.
वे कहते हैं,
कविता माने कविता,
'कवि जो लिखता है सो कविता'
जैसे कि 'जो लिखता है सो लेखक.'
ऐसी ब्रॉड और बोल्ड व्याख्या
करने की हिम्मत या समझ
लिटरेचर के किसी प्रोफेसर के पास न होगी.
और अगर होगी तो वह अवश्य
कर्मशील -कम- कवि होगा.
क्रिएटिविटी हर किसीमें होती है
और अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी हर किसीको होनी चाहिए.
कवि आज़ाद हो गये.
कविता आज़ाद हो गयी.
आत्मविलोपन-लिंचिंग- बलात्कार-बेरोजगारी-गरीबी-
शोषण-दमन के करूण वास्तव की अभिव्यक्ति की जैसे बाढ़ आ गयी.
हर चौराहा-चकला, बस्ती- मुहल्ला
गाँव- शहर के नोटिस बोर्ड पर
पीपल्स पोएट्री छलकने लगी
निजी उर्मियों की अभिव्यक्तिमें माहिर शायर और कवि को भी लगा:
हवा बदल गयी है.
लेकिन अफसोस,
इस क्रांतिकारी हवा के साथ ही मेरी फंतासी भी यकायक अदृश्य हो गयी.
***
कालचक्र
सरयू तट पर बहुत सितम हुए
कभी ऋषि शम्बूक का वध हुआ.
कभी ईश्वर अल्लाहके घर तोड़े गये.
सीता और शूर्पणखा को सताया राजा ने.
श्याम को लगा
मरु भूमि में सोख गयी सरस्वती किनारा पर जा बसता हूँ.
वाल्मीकि बन जाऊं तब तक तपस्या करता हूँ.
सूपा झाड़ू लेकर
गधे पर बिराजमान शीतला माता के स्थानक पर ले गयी माँ.
"बता, त्रिशूल दीक्षा दूं या तलवार दीक्षा?"
माँ ने कहा:" कलम दीक्षा दो उसे,खुदका और औरों का भला करे।"
सती रूपकुंवर के श्मशान घाट की छतरी के सायेमें श्याम ककहरा सीखा.
कभी मरे बिल्ली कुत्ते की बाबागाडी खीँचते खेलता भी.
शाम के खाने में राजभोग जैसी जूठन की कॉकटेल भी मजे से जीमता.
नगर का मैला सिर पर ढोती
माँ के साथ छोटा सा श्याम राजमार्ग पर चलता है
और जोधपुर नरेश गजराज सिंह की सवारी को अपसगुन होते हैं.
"माँ, सब लोग हमें हट.. हट.. क्यों कहते हैं, जहां भी जाएं?"
"चुप, कितनी बार कहूँ, भंगी हैं हम इस लिए।"
श्याम उलझनमें पड़ गया: " किरपाण दीक्षा लूँ या कलम दीक्षा?"
छात्र श्यामने अपने बंधुओं के लिए लिखा एक आवेदन पत्र:
1. हरेक वाल्मीकि को जजमान के परिवार के सदस्यों की संख्या के मुताबिक प्रतिदिन का एक आना और दो ताजी रोटी देना.
2. पाखाना और सफाई के अलावा और किसी काम के लिए अलग और वेतन देना होगा . बेगार पूरा का पूरा बंद.
3. सिर पर मैला न ढोयेंगे, गाड़ी देनी होगी
लेकिन राजस्थान हाईकोर्ट के प्रांगण में तो थी मनु की प्रतिमा,
अम्बेडकर संहिता का अमल न हो जाय कहीं!
लेकिन श्याम तो था एकलव्य का अवतार.
द्रोण के पुतले की आँख, मस्तक,हृदय ही
हो गये उसके लक्ष्य.
स्नातक हुआ, अनुस्नातक हुआ,
अध्यापक हुआ, प्रोफेसर हुआ,
मेहतर मीट गया ,
मास्टर हुआ.
रूखी मीट गया,
ऋषि हो गया.
आया 29 फरवरी,1996 का दिन.
जोधपुर किले के द्वार पर
फूलमालाएं लेकर खड़े हैं
नरेश गजराज सिंह
वाइस चांसेलर श्यामलाल के स्वागत के लिए.
श्याम को याद आता है,
चार चार गोल्ड मेडलसे विभूषित
अश्वेत ओलिम्पियन जेसी ओवेन्स के साथ हेंड शेक किये बगैर भाग गये हिटलर की.
कौए गिद्ध का मैला सिर पर ढोता
मनुका पुतला शर्म से सुलग रहा है.
एक वाल्मीकि वाइस चांसलर हो गया है.
एक चमारिन अयोध्या की महारानी हो गयी है.
देश का राजा दलित नारायण है.
कालचक्र एक वर्तुल घूम गया है.
जोधपुर यूनिवर्सिटी के वाइस चांसेलर प्रो. श्याम लाल के जीवन पर आधारित
***
हम सेकंड क्लास सिटीजन
मेरी प्यारी दीन मुंबई यूनिवर्सिटी,
बहुत बहुत आभार तेरा भावसिक्त आमंत्रण का.
हम तो ठहरे जन्म जन्म के हिजरती,
हम पैदल प्रवासी कितने ही माइल चलनेवाले,
हमारी पीड़ा की बात बताने
अहमदाबाद से मुंबई की मेरेथोन भी दौड़ लेंगे,
तुम्हें कोई जरूरत नहीं रुआँसा
हो जाने की.
मेरी प्यारी रंक मुंबई यूनिवर्सिटी,
तेरे गजकाय बजट पर बहुत बोझ पड़ता होगा
पण्डितों और आचार्यों का,
साक्षर और सारस्वतों का,
डीन, फेलो और चांसलरों का.
तुजे तो मूल्यवान शॉल ओढानी होगी.
टोला, कोलाहल और आवाजों के एब्सर्ड स्यूट बुक करवाने होँगे विजीटिंग प्रोफेसर्स के लिए.
बाल की खाल खीँचे ऐसे झीने और सूक्ष्म रिसर्च तुम्हें फाइनान्स करने होंगे.
मेरी प्यारी कंगाल मुंबई यूनिवर्सिटी,
हमारे भोजन और ठहरने को चिंता न करना.
धन्यवाद तेरे शहरकी फुटपाथों का.
वक्त के मारे हमारे बंधुओं के साथ हम रात गुजार लेंगे,
दलित कवि नामदेव ढसाळ के गोलपीठा में पड़े रहेंगे.
तुम करती रहो ज्ञानवृध्द गुर्जरेश्वरोंकी आवभगत.
हम तो भटकते रहेंगे सारी रात ग्रांट रॉड की गलियों में.
लेंगे खबर पिंजरे में कैद कँवारी येलम्माओं की.
धारावी की झोपड़पट्टी में
लतीफ खटीक के ठेले पर
पाँउ खीमा का रात का खाना खा लेंगे.
मेरी प्यारी गरीब मुंबई यूनिवर्सिटी,
हम तो तेरी हरियाली लॉन में सिर्फ गंदी ग्रेफीटी जैसे अक्षर .
तुम करो तैयारी
कुलीन कवि,अभिजात एकेडेमिश्यन और भद्र भारतीयों के स्वागत की.
सपने तो हमें भी आते हैं सुख के.
कैसे होंगे वातानुकूलित वाहन
और विश्रामगृह?
लेकिन तुम दिलगीर न होना.
मेरी प्यारी रंक मुंबई यूनिवर्सिटी,
तुमने तो हमारा गर्मजोशी से स्वागत किया है सेकन्ड क्लास रेलवे टिकट से.
हमें याद आती है 1962 की एक सुबह.
अमरीका की यूनिवर्सिटी ऑफ मिसीसीपीमें
जेम्स मेरेडिथ नाम के अश्वेत छात्र का प्रथम प्रवेश.
कु क्लक्स क्लेंन के सफेद गिद्ध मंडरा रहे हैं चौकोर.
लेकिन केनेडी केम्पसमें बुला लेते हैं तोप.
आकाश में एयरफोर्स के हेलिकॉप्टर चौकी करते हैं.
अमरीका ने पूरा खजाना खोल दिया है,
एक अश्वेत नागरिक के स्वमान के खातिर.
हमें याद आता है फ्रेंच शासनने
जाहिर किया है साइलेन्स झोन
दलितों के मसीहा
'ला मिझरेबल' के लेखक का घर:
'प्लीज, डोन्ट डिस्टर्ब,विक्टर ह्युगो इज़ वर्किंग.'
मेरी प्रिय पामर मुंबई यूनिवर्सिटी,
तेरा दलिद्दर फेडने हम अंगूठे तो क्या
सिर भी धर देंगे तेरे कदमोंमें
मराठावाडा के दलितों की तरह.
तेरा नामान्तर कर के
हम कभी बख्शेंगे उसे नालंदा और तक्षशिला का गौरव.
तेरे दैन्य पर शर्माने की कोई जरूरत नहीं तुझे.
मेरी प्यारी पामर मुंबई यूनिवर्सिटी,
तुमने तो हमारा स्वागत किया है
सेकण्ड क्लास रेलवे टिकट से.
***
क्यों भागा रे
हिटलर, मिला हाथ,
तुम्हें बुलाता है जैसी ओवेन्स.
तुम क्यों भागे रे, स्टेडियम छोड़ कर?
देख,
उसने उसके काले हाथ पर पहनी हैं सफेद जुराबें,
उसके गलेमें एक नहीं, दो नहीं,
चार चार सुवर्णपदक चमक रहे हैं.
तुझे तेरे आर्य लहूकी सौगंध, रूक जा
जैसी ओवेन्स एक खेलदिल इंसान है.
और लहू का रंग सिर्फ लाल ही होता है.
तेरे ध्वज के स्वस्तिक की तरह,
तेरी आंखोंमें जलती आगकी शीखा की तरह.
गेस चेम्बरमें छटपटाते यहूदी की चीख की तरह,
और जैसी ओवेन्स के लाल अंडरवेर की तरह.
हिटलर, रूक जा, हाथ मिलाता जा.
तू भाग न सकेगा.
तेरे पीछे पीछे देख, मेटाडोर मुहम्मद अली का मुक्का आ रहा है,
तेरे कुचल दीये गये ह्रदय के रक्तफव्वारों का रंग
और जैसी ओवेन्स के काले हाथ के रुधिर का रंग,
सब कुछ एकरंग दिखाने के लिए.
हिटलर हाथ मिला कर जा
तुझे जैसी ओवेन्स बुलाता है.
दैवायत्तम कुले जन्मम मदायतं तु पौरुषं
(किस कुल में जन्म देना भाग्य के हाथ में है, पौरुष मेरे हाथमें)
***
एक कुत्ता द्विज हुआ
शास्त्र चाहे सो कहें
मैँ तो कहता हूँ विप्र वदता है
वही है वेदवाक्य
वह अंजुरी भर कर छिड़कता है जल,
तो गोबर भी हो जाता है पवित्र
और लोग उसका प्रसाद भी लें.
जनेऊ तो जानवर को भी दे सकते हैं,
अगर वह ज्ञानेश्वर की भैंस की तरह गीतागान कर सके.
थाल भर के सोनामुहर दो
तो वे शुद्र शिवाजी को क्षत्रिय जाहिर कर दें.
और यह अल्सेशियन कुत्ते की बात ही कुछ और है
उसे गोमांस नहीं
यवन मलिच्छ चाण्डाल जैसे
विधर्मी अधर्मी का मांस बहुत पसंद है
वक्त आने पर मनुके धर्मशास्त्र के श्लोक वह गुर्रा सकता है,
कौटिल्य के अर्थशास्त्र की आयतें भी भौंक सकता है.
यह वफादार श्वान तो अपना सनातनधर्मी सेवक है,
अरे, स्वयंसेवक है
और है गौब्राह्मणप्रतिपाल भी.
मैँ गीगा भट्ट इस ब्रह्मसभामें
आज्ञा देता हूँ,
उसके गले का पट्टा तोड़ दो.
उसके उपनयन संस्कार करें
और उसे खुला छोड़ दो.
में उसे द्विजोत्तम जाहिर करता हूँ.
शास्त्रों ने चाहे जो कहा हो
विप्र वदता है वही वेदवाक्य!
(एक शुद्र मंत्री को जनेऊ दिया गया ऐसी खबर अखबारों में आने पर)
***
2019की एक सवर्णा
सातवें आसमान पर है सवर्णा.
कामदेव जैसा प्रेमी जो मिला है.
कुछ भी कमी नहीं है उसके चाहनेवालेमें
पढाई में अव्वल,
स्पोर्ट्स में सबसे आगे,
कॉलेज ड्रामा का हीरो
और हाँ, कविता भी लिखता है!
इत्र से भीगे उसके प्रेमपत्र
हजार बार पढ़ कर भी वह पढ़ती है बार बार.
सहेलियां तो कहतीं हैं उन्हें गन्धर्व और अप्सरा की जोड़ी.
सातवें आसमान पर है सवर्णा
कार्तिकेय जैसा प्रेमी जो मिला है.
मम्मी पापा खुश खुश हैं कार्तिकेय का स्वागत करनेको.
आई. ए. एस. के इन्टरव्यूमें पास हो जाय
ऐसे लड़के की पर्सनालिटी में क्या कमी हो सकती है?
कार्तिकेयने सब के दिल जीत लिए
एक ही मुलाकात में,
और सवर्णा को मिल गया ग्रीन सिग्नल.
वह तो पहुंच गयी आठवें आसमान पर
ईर्ष्या से जलती मंथराओं की कानाफूसी एक दिन उसके घर तक पहुंच गयी.
और सवर्णा को पापा ने कहा,
"हम तो नहीं मानते जातपाँत
लेकिन जरा उसका स्कूल लिविंग देख लेना"
आगबबूला सवर्णा ने यह सुनते ही पूरा घर सिर पर ले लिया,
"कास्ट,कास्ट,कास्ट
वॉट इस धीस ब्लडी नॉनसेंस कास्ट?"
उसी क्षण उसने तोड़ दीया घर से नाता,
और चल दीया कार्तिकेय के दिलमें हमेशा हमेशा बसेरा करने.
नवें आसमान पर है आज सवर्णा,
कार्तिकेय जैसा लाइफ पार्टनर जो मिला है।
***
कवि हूँ
कवि हूँ मैं.
सताए गये पंछीका रूदन भी में सुन सकता हूँ.
शोक को पिघला कर श्लोकमें ढालने का काम मुझे सौंपा गया है.
मुझे वरदान मिला है क्रान्त दर्शन का.
में भविष्य भाख सकता हूँ.
मुझे किसीने पैगम्बर नियुक्त किया है:
इसी लिए ही उपदेशक बन कर संदेसा पहुंचाता हूँ,
गांव दर गांव शहर दर शहर.
मेरा तो फर्ज बन जाता है
विषाद से विश्राम देनेका.
मेरा अधिकार हो जाता है
अन्धकार से आगाह करनेका.
कवि हूँ मैं.
नायक नहीं हूँ मैं
कि नेतृत्व कर सकूं.
ईश्वर नहीं हूँ मैं
कि आख़िरत से बचा पाऊं.
महज कवि हूँ मैं.
dear vankar saheb,
ReplyDeleteso delighted i am that i wouldn't wait to read all the translations. the translation of 'ultra fashionable' is so beautiful i thought i must first congratulate you and then go to the next poem.
you are a wonderful man, how come you master so many skills ? heard of brilliant bilingual writers, but now i know there is at least one brilliant bilingual translator whom i know ! and i am proud that he belongs to my dalit community.
great congrats again.
P.S. : I WILL RETURN TO YOU ON MY SECOND READING IN CASE I FIND SOMETHING TO BRING TO YOUR NOTICE.
I FORGOT TO THANK YOU IN THE HASTE OF OFFERING YOU COMPLIMENTS.