Saturday, August 6, 2011

दलपत चौहानकी कविता


















अस्पृश्य

पाठशालामे प्रथम दिन था
कयामतका  दिन
कपकपाते हाथोंसे
मैंने  स्लेट पर लिखा नहीँ एक दो तीन
जलते सहराकी अग्निभूमि जैसे
मेरे सीने पर लिखी मेरी जाति.
तबसे मैं अछूत अस्पृश्य अस्पृश्य हूँ
मेरे अस्तित्वके अणु अणुमें  प्रतिध्वनित होता रहा
सहस्र बिच्छुओंके डंककी पीडाका  परिचय था वह.

और हिमालयकी दुर्गम चोटी जैसे उम्बर लाँघकर पहुंचा 
वर्गकक्ष तो
दूर, सबसे दूर एक कोनेमें
शंकरकी तरह मीला था एकान्त स्थान .
तभी पैदा हुआ था नेत्रमे
त्रिपुरारिका ताण्डव
और चकराता रहा चारों  तरफ .
फटे हुए झोलेमें टूटी हुई स्लेटका  महाखजाना लेकर
वक्त सुबकता था. कोरे आकाशकी पीड़ा अर्जुनकी  
द्रोणके द्वार.
फिर भी सीखता रहा पाठ
मेरे शब्द्को मिले प्रास स्थिरताके
लेकिन भूल नहीं सकता दूरसे ही प्रतिध्वनित 
स्वयंकी ही पदचाप.
अब नहीं रहा वह  वक्त
चिपचिपी आँख और
उलट गए अश्रु कलश
थिगली लगी हाफ्पेंट और फटी कमीज की बांहसे नाक साफ़ करनेका वक्त झर गया
बचपनमें खींची धिक्कारकी रेखा कुछ गहरी ही हो गई
सहस्रार्जुनकी  तरह
समूची सृष्टिको समो लूं अपनी बाहोंमें
 चरनमें नाप लूं धरती,  बलिकी तरह .
आंखमें आकाशका वर्तुल
उन्नत मस्तकमें
आग-एसीड-वायोलंस, विद्वत्ता भी
लेकिन हे धिक्कारके  देव
आजतक मैं खोज रहा हूँ
मेरे किस अंग-उपांग पर लिखी है तूने
अस्पृश्यताकी ऋचा !
इसीलिए ही तो मुझे अस्पृश्य संज्ञा देनेवाले 
तुझे मैं पूछता हूँ ,
कहाँ है तूने मुझे दी थी उस वक्त
वह संज्ञा ,
जिसने मुझे पहुंचायी है पीड़ा
उम्रभर ?



मैं एकलव्य
ओह, पहचान लिया मुझे?
अच्छा ही हुआ.
भैंसेकी पीठ सा चमकीला रंग,
मौक्तिक मणी जैसे विशाल नेत्र
ऐरावतके गंडस्थल सामान स्कंध
भूल ही नहीं सकते तुम.
प्रत्येक कदममें सतर्कता
समयसे सीखा हूँ
किसी मिट्टीके पुतलेसे नहीँ.
तुम्हारे  सव्यसाचीकी तरह
मुझे कहाँ करना है बरगदवेध
या सभागृहमें मत्स्यवेध
मेरी वीरताका प्रमाण देनेके लिए?
स्वरक्षाके लिए शस्त्र धारण किया है मैंने,
विद्वत्ता-वीरता-पुरुषार्थ
कुछ भी नहीं है तुम्हारा
झांकना भी नहीं मेरे हाथको
अंगूठा अब न मिलेगा
धूर्तता करनेवालोंको कुछ न दूंगा,
चुटकी धूल भी नहीं.

मेरी पहचान
हाँ, मैं वही हूँ
युगयुगसे जिसे पह्चाननेका
तुम करते रहे हो इन्कार.
अश्वमेघ यज्ञोंमें
जब तुम हजार हजार अश्वोंका करके संहार
पवित्र मांसकी टोकरियाँ भरकर
घरकी और प्रयाण कर रहे थे
तब यज्ञकुंडके अग्निको मैंने ही किया था शान्त.
राजमार्ग पर टपके लहूको मैंने किया था साफ़.
तुम तो सिर्फ शब्दोच्चार करते
भीख मांगते देवसे
जबकि मैंने तो समिध अर्पण किया था देवको.
तुम्हारे लिए युद्धभूमिमें क़त्ल हुआ वही हूँ मैं.
युगयुगसे जिसे पह्चाननेका
तुम करते रहे हो इन्कार.
तुम्हारे कृष्णने जब किया था स्थापन सोमनाथ
इन बाहुओंने ध्वंस किया था चन्दनवृक्षोंका.
बीलीपर्ण चुननेकी संवेदना अब भी अक्बंध है पोरों पर.
गंगाजलसे शंकराभिषेक हो रहा था तब
मंदिरके बाहर खाली कांवड लिए
पूरबकी ओर निहारता
मैं  प्रतीक्षा कर रहा था सूर्यकी.
श्रृंखलाओंसे बद्ध
जहाजों पर लादकर मुझे ले जाया गया था अमरीका
एक हाथमें बेदीयां, दूसरेमें पतवार.
जिसे बाजारू माल समझकर बेचा था
हाँ, मैं वही हूँ
युगयुगसे जिसे पह्चाननेका
तुम करते रहे हो इन्कार.
आज टेसूके फूल हो कर खील उठा हूँ.
थूहरकी बाड, खेत्का चास हूँ.
कालिदासों-वाल्मीकियोंसे उपेक्षित मुझे
तुम करते हो पहचाननेकी कोशिश?
गांवके छौर पर
गुफावासी जैसा
सायाहीन
लेकिन दोपहरी जैसा तीव्र
असाढ़की गडगडाहट
देवहूमाके पंखकी फडफडाहट
हो जाता हूँ बारबार .
मैं विराट
आया हूँ लेकर मेरी पहचान.
सुनो, तुम्हारे कानके  करीब  
मेरे धूंसेकी गूँज.
हाँ, मैं वही हूँ
युगयुगसे जिसे पह्चाननेका
तुम करते रहे हो इन्कार.

***

मैं एकलव्य

पहचान लिया मुझे?
चलो,अच्छा ही हुआ.
भैंसे की पीठ सा चमकीला रंग,
मौक्तिक मणी जैसे विशाल नेत्र
ऐरावत के गंडस्थल सामान स्कंध
भूल ही नहीं सकते तुम.

कदम कदम सतर्क रहना
समयसे सीखा हूँ
किसी मिट्टीके पुतलेसे नहीँ.
तुम्हारे  सव्यसाचीकी तरह
मुझे कहाँ करना है बरगदवेध
या सभागृहमें मत्स्यवेध
मेरी वीरताका प्रमाण देनेके लिए?

स्वरक्षाके लिए शस्त्र धारण किया है मैंने,
विद्वत्ता-वीरता-पुरुषार्थ
कुछ भी नहीं है तुम्हारा.

झांकना भी नहीं मेरे हाथको.
अंगूठा अब न मिलेगा,
धूर्तता करनेवालोंको कुछ न दूंगा,
चुटकी धूल भी नहीं.

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