Wednesday, August 17, 2011

साहिल परमारकी कविता

















सिर्फ इतना ही, विशेष कुछ नहीँ.

यूँ तो रघला,
मेरी चाली और तेरी सोसायटीके बीच 
कुछ भी नहीँ
है सिर्फ एक दीवार
पांच साढे पांच फूटकी   दीवार
सिर्फ इतना ही , विशेष कुछ नहीँ.
पन्द्रह अगस्त  या छब्बीस जनवरी के दिन
वंदे मातरम और जन गण मणके सूर
कपडा मिलके सांचोंकी घरघराटीको भेद कर
मेरे मकान तक पहुँच  नहीँ पाते
सिर्फ इतना ही , विशेष कुछ नहीँ.
तेरा भाई एयरकंडीशन्ड रुममें
रंगारंग कवायत और सलामी
टी.वी.पर देख रहा होता है तब
मेरा भाई सिपोरके कोई पराये खेतमें
वेठ करता है.
सिर्फ इतना ही , विशेष कुछ नहीँ.
रथयात्राके दिन
तुम तेरे बहनोइके ट्रकमें   बैठकर
मुठ्ठीभर मुंगका  दाता होकर
हुलसित हो गए थे तब
मेरा पड़ोसी
अपनी टायफोइडसे मृत बेटीके लिए
आंसू बहानेसे भी रहा
उसकी अश्रुग्रंथियाँ पर असह्य दबाव था
उसका चेहरा और मन दोनों तंग थे  
क्योंकि बलियाने भीमके लफड़े नंबर एककी पैदाइशने
उसे रोनेको मना फरमाया था.
जन्माष्टमीके दिन तुम परिवारके संग
कारमेन बैठके सैरको निकले थे तब
मैं मेरी बेटीके फटे हुए फ्रोकको
थीगली लगा रहा था.
बेबी सयानी हुई तबसे लेकर
पांच पांच मेले निकल गए
मैं उसे खेलनेके लिए
चाभीवाली मोटर तक  दिला न सका
सिर्फ इतना ही , विशेष कुछ नहीँ.
आरक्षणके दंगोंके वक्त एक दिन
तेरी छतसे
सनसनाता हुआ एक पत्थर आया
और मेरे सर पर लगा
धडधड खूनकी धारा बहने लगी
उसके पीछे ही आयी मशालने
मेरे घरको आग लगा दी
सिर्फ इतना ही , विशेष कुछ नहीँ.
कभी कभी
स्कूली जीवनके दौरान किया गया
भारत मेरा देश हैका
तोतापाठ मुझे याद आ जाता है
तो मैं खीलखिलाके हंस देता हूँ
सिर्फ इतना ही , विशेष कुछ नहीँ.

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