Friday, August 5, 2011

भी.न.वणकरकी कविता



 
 












ओवरब्रिज

यह  गाय 
हमारे घर
कभी आयी नहीं,
रम्भाई नहीं,
या तो दूध भी दिया नहीं.
फिर विषाद या विवाद क्या ?
वैतरणी पार करने के लिए तो
हम ओवरब्रिज बांध देंगे.


चमगादड गृह

सामने
यह इमारत जो खड़ी है
वैसे तो मैं उसकी नींवका पत्थर हूँ
मैंने उसे बहुत मेहनतसे खड़ा किया है
सच कहता हूँ
मैंने सर्वदा सर्वमंगलकी ही कामना कि थी .
लेकिन वर्ण-वर्गके चमगादडोंने
धर्मके नाम पर
अर्थके नाम पर
कामके नाम पर
मोक्षके नाम पर
इस इमारतमें अड्डा जमा दिया
और धीरे धीरे अधिपति बन गए.
मेरे नाक, कान, आँख और अंगूठा
अरे धड़ भी
और अब तो मेरे समूचे अस्तित्वको
ग्रस रहे हैं.
इसी लिए तो मैं उस चमगादड गृह्के
बदबूदार खंडहर पर
थू थू कर
चल पड़ा हूँ.


ग्यारहवीं दिशा 

श्रुति –स्मृति
शास्त्रोंके नाम पर
षड्यंत्र रच कर
हमारे ध्यानस्थ सर छेd  दीये.
और कलावान   अंगूठे दानमें ले लिये
अपमानित किया, उपेक्षित किया
हमारी अस्मिताको.
हमें बहरे,गूंगे-अंधे-अपाहिज बनाकर
’मानव श्रेष्ठ महान’की का गान किया.
अस्तित्वकी  आख़िरी जंगमें
झंझावात ही झंझावात
चौकोर झंझावात.
तमाम षड्यंत्र खुले पड  जाएंगे
और जिजीविषाके कितने ही ऊँट धंस जायेंगे  रेतमें.
उसके बाद रेगिस्तान
तमाम, दसों दिशाओंमें हो जाएगा अंध
और विस्तीर्ण होता जाएगा कुरुक्षेत्र
ग्यारहवीं दिशाकी ओर.

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