Friday, August 5, 2011

ए.के.डोडीयाकी कविता
















मेरे देशमें

कितना गहन अन्धकार है मेरे देशमें,
सूर्य भी मजबूर है मेरे देशमें.

कंधे पर लिए फिरते हैं कितने लोग
भव्यताका बोज, मेरे देशमे.

हाथमें किसके रखूं मैं सूरजमुखी?
सूर्य अध्याहार है मेरे देशमें.

अन्नकूट सुख छिनता है  उसका
भूख गूंगी औरत है मेरे देशमें .

ढँकी है मैंने ही उनकी  नग्नता वस्त्रसे
मैं ही हूँ बस्तीसे बाहर मेरे देशमें.

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