Monday, August 8, 2011

यशवंत वाघेलाकी कविता













आनंदकी कविता  


छंदोंमें  न रचूंगा कविता.
छंद तो हैं प्रज्ञाचक्षुओंके गोगल्स
जबकि मैं तो  निज आंखोसे ही सबकुछ देख सकता हूँ.
लयमें  न रचूंगा कविता.
मेरे प्रास तो हैं अपने दु:खोंके प्रलम्बित निश्वास.

अत: में लिखूंगा
तेरे अवमूल्यन, विलयकी  कथा.
कहाँ है समानता कि मई ढूंढूं प्रास शब्दका
और सुखका अनुप्रास अब भी बाँझ है.

रूप और आकारकी,
रचना और संरचनाकी
व्यभिचारी बहस्में मुझे कोई दिलचश्पी नहीं
क्योंकि पेट खाली है
मुझे साक्षात्कार  हुआ है भूखका.

लगता है मैं इंसान हो जाऊँगा
तो शैतानोंको मेरे पुत्र बना दूंगा.

फिर मैं लिखूंगा
कतारमें अंतिम खड़े इन्सानके
आनंदकी कविता. 



इस देशका

इस देशका राष्ट्रीय पक्षी मोर नहीँ
गीद्ध होना चाहिये
राष्ट्रीय  प्राणी बाघ या शेर नहीँ
चिता  या सियार होना चाहिये.
इस देशका राष्ट्रीय पक्षी मोर नहीँ
इस देशका राष्ट्रीय पुष्प गुलाब नहीँ
धतूरा होना चाहिये.
क्योंकि यहाँ मोरकी सोलह कलाओंको  
रौंदते और मसलते गिद्ध देखे है मैंने.
चिताको मजेसे पेट भर शिकार करते देखा है मैंने.
गुलाबकी सुगंध
तुम्हें पसंद है
तुम्हें मुबारक.
बस, यहीं तो
यहाँ वहाँ सब जगह
देखता हूँ
धतूरेके नशेमें बहकते.
सोचता हूँ इस देशका...



पहचान

यूँ तो वो लोग मुझे जानते ही हैं
फिर भी
जैसे अनजान होकर 
कोई पूछता है मुझसे
आप कौन हो?
मैं कहता हूँ
यह मस्तिष्क शम्बूक है
यह ह्रदय  कबीर है,
मैं सत्यकाम जाबाली हूँ
फिर भी
यह पैर शूद्र हैं अब भी .
लेकिन
आज
मैं एक इंसान हूँ
यह कम है क्या?
और आप कौन..!

 
कालबधिरोंसे

हम नहीं है चीख,
हम हैं ललकारकी प्रतिध्वनि.
अब हम आक्रंद नहीं हैं,
हम हैं आख़री आन्दोलन.
अब हम आर्तनाद नहीं हैं ,
हम हैं परिवर्तनकी अनन्त लहर.
हम इस बेबुनियाद संस्कृतिके लिए
सिर्फ सुलगे हुए बारूदके गोले हैं,
गोले.

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