Saturday, August 6, 2011

मंगल राठोडकी कविता

मौन है , दोस्तो  !

वह एक ऐसा शब्द है
जिसका उच्चार करनेसे भी  
होता है विस्फोट
चिथड़ा चिथड़ा जबान
रोकेटके लोंचिंग पेडके इर्दगिर्द
धुएँमें गोलगोल घुमती रहती हैं.
हमारा यह मौन !
उसमेंसे निकला हुआ
यह नग्न सत्य
अपने ढंकने लायक अंगोंका   प्रदर्शन  
करता रहता है
सरेआम
बिलकुल नंगधडंग.
उसे आँखे चुराकर देख लेती
किसी पतिव्रता   या  
कंवारी कन्याके सपने  जैसी
हमारी कविता भी है मौन, दोस्तो!

संकेत

जिसका न हो कोई सबूत,
न हो जिसका कोई इलाज,
दाँत भींच कर उसे सहन करता रहा हूँ
जिंदगीभर.
इस सर्द शाम
मेरी दाढ़में दुखते हैं अभीतक
हजारों अन्याय,
जिसका न ही कोई सबूत,
न ही जिसका कोई इलाज.
 
अनुवाद : कवि स्वयं

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