Wednesday, August 24, 2011
हरीश मंगलमकी कविता
हे कवितादेवी
हे कवितादेवी,
मैं तुझे नचाने चाहता हूँ वास्तवके परदे पर.
हमने कभी
सप्तरंगी इन्द्रधनुका आनंद नहीँ लिया
उसी आकाशमें
एक्के बाद एक टूटते सीतारोंको देखकर
इन्द्र्राज्यसे मुझे पैदल ही घर लौटना है.
देख,
खंडहर छप्परकी खपरैलको हटा
कितनी राह देख रहे हैं.
परियोंके देसमें उड़ना सहल है,
तुझे पंख फूट आयें यह सहज है.
लेकिन चल कंटीली धरती पर, नंगे पांव.
बाद्लके घोड़े पर सवारी छोड़.
यहाँ बच्चे एकटक देख रहे हैं
स्लेट-पेन बगैर.
तेरे शब्दबद्ध देहसे उसकी वाचा निकलेगी क्या?
याँ फिर अगर-मगर?
तेरे श्रवणकेन्द्र
अभ्यस्त हैं सुननेके लिए
केवल मंजुल रव.
सूनी है कभी तुमने मनुष्यकी चीख?
तुझे याद रहती है तेरी सौन्दर्यलक्षी देह.
हरेक शब्द हमें मिलता है .
तुन फूलकर कुप्पा बन गयी हो ,
तुम फुदकती हो जैसे चिड़िया.
तुम अतिआनंदित हो गयी हो
देखकर सुन्दर रंगोली.
लेकिन मैं तुझे नचाने चाहता हूँ वास्तवके परदे पर
और समझाना चाहता हों बेलीके मुरझानेका अर्थ.
केंसर
दुःखकी भावनायें
दुस्वप्नकी तरह ताक लगाकर बैठी हैं
अनंतकालसे.
और मैं देख रहा हूँ
विस्फारित,लाल लाल सूखी आंखोंसे
जो मैंने कभी पहले नहीं देखा.
वृक्षकी पीठ पर विस्तीर्ण होती चली
केंसरगाँठ
और उसमेंसे लगातार रीसता
पीला,गाढ़ा पीप.
कहते हैं कि केंसर प्राणघातक रोग है
जो धीरेधीरे धूरेमें भिनभिनाते कीडोंकी तरह
खा जाएगा इन मूल्योंको.
सचमुच मुझे भी धीरेधीरे साक्षात्कार हुआ था
इस केंसरका.
प्रथमाचार्य बालकदेव गोकलदास
और सच्चे धार्मिक होनेका स्वांग रचानेके लिए
मेज पर रखी गयी गीता.
और चश्मेसे
कड़ी नजर झांका था
प्रहार करके फैंकी थी संटी
(छूत लग जानेके डरसे ही तो)
जो आरपार उतर गयी थी मेरे अस्पृश्य जिगरसे
बा.गो.की नेमप्लेटके साथ.
और उस प्रहारसे हुई सूजन
आज भी है यथातथ.
शायद
काल होगा वह पल, मेरे जन्मके वक्त.
रोग होगा वह पल,मेरे स्कूलप्रवेशके वक्त.
उद्वेग होगा वह पल, मेरे समाजके ललाट पर.
अजीब उलझनमें फंस गया हूँ बरसोंसे.
अब बा.गो.नहीं रहे
लेकिन केंसरके अनगिनत जंतु
बा.गो.की विरासतके तौर पर
सरपट भागते रहते हैं
सचमुच केंसर प्राणघातक रोग है
और वह लाईलाज है
फिर वही संटी,बा.गो.,अस्पृश्य सूजन.
अब एक के बाद एक पत्तेका गिरना ...
और वृक्ष हाँपता ही रहता हैं
हवाके झोंकेसे तड तड टहनियाँ टूट जातीं हैं.
यकायक आकाशमे
संध्याका लाल लाल रंग
अँधकारके साये लेकर
मेरी आँखोंमें कहांसे उतर रहा है
धीरेधीरे?
Monday, August 22, 2011
नगीन परमारकी कविता
मेरा बाप
इस देशका है दोष
जिसने बापको मेरे
इस देशकी भूमि पर
उन्नत मस्तक
जीने न दिया
उम्रभर.
उम्रभर जिसने पीया पसीना
जब प्यास लगी
(किसीका न खून पीया)
रोटीके टूकडेमें
जी रहे जिंदगी मेरे बापको
(किसीकी न रोटी छीन ली)
बाप मेरा जिसने लिया नहीं सरकारसे
सर्टिफेकट(बिलकुल जूठा
स्वातंत्र्यसेनानी होनेका
न ही खाया कोई पेंशन.
न ही जिसने कभी
हाथ जोड़कर वोट मांगकर
देशकी जनताको उल्लू बनाया.
बाप मेरे खानेपीनेके किसी सामानमें
कोई मिलावट कभी न कि,
न किसी जानको जोखिममें डाला.
जिंदगीमें कभी न फैलाया हाथ
ना किसीकी बहन-बेटीकी इज्जत पे हाथ डाला.
फिरभी लानत है ए उस देशकी कातिल प्रजाको
जिसने बापको मेरे
इस देशकी भूमि पर
उन्नत मस्तक
जीने न दिया
उम्रभर.
बाप मेरा जिसने उम्रभर
कभी न फैलाया हाथ किसीके सामने,
न ही याचना कि दयाकी
जिनेकी खातिर न कभी वो गीडगीडाया
फिर भी ऐसे मेरे बापको
इस देशके नापाक लोगोंने
कभी जीने न दीया
उन्नत मस्तक
उम्रभर.
पुत्र मेरा
आगे चलकर
कभी न कहेगा ऐसा.
श्याम साधूकी कविता
अंतिम खड़ा है जो
अंतिम खड़ा है जो उस इन्सानकी
छठी इन्द्रिय जाग्रत होगी तब
यक्ष सम्मुख बैठे व्यक्तिके
मूलाधार चक्रसे एक प्रकाशपुंज प्रकट होगा.
अंतिम खडा है जो
उस इन्सानकी
छठी इन्द्रिय जाग्रत होगी तब
वहाँ मणीकर्णिका घाट पर होगा
जयघोष ओम् ह्रीं ह्रीं का .
अंतिम खडा है जो
उस इन्सानकी
छठी इन्द्रिय जाग्रत होगी तब
बहुत बोलनेवाले
जातिवादी लोग, जो आगे खड़े हैं
चले जाएँगे सबसे पीछे और
खड़े रह जायेंगे
खामोश.
Wednesday, August 17, 2011
उषा मकवाणाकी कविता
हरिजन हो कर तो देख
रानीपुत्र होकर तूने अवतार लिया कई बार,
नारीकी कोखसे तो अब जनम लेकर देख.
चक्र,धनुष्य और तीर चलाये हैं बहुत,
हाथमें लेकर झाडू सड़क पर निकल कर तो देख.
हरि कहलाना तो बहुत सहल है हरि,
केवल एक ही बार हरिजन होकर तो देख.
मीना कामलेकी कविता
खोज
त्वचाकी तरह
कैसी चिपक गयी है मुझे यह जाति
कभी मैं खुजलाने लगती हूँ लगातार
तो भभूतकी भांति उडती रहती है
और फिर एकदम चिपक जाती है यह जाति.
मैं सिंगार करती हूँ
उन्हें चकमेमें डाल देनेके लिए.
लेकिन लोग ऐसे धोखा खा जायेंगे क्या?
ऊपर नीचे उथलपुथल करके
ढूंढ लायेंगे मेरा असली लिबास.
अब इस जातिका मैं क्या करूँ?
केंचुलीकी तरह उतारकर
उसे फैंक आऊ गहरे समन्दरमें?
लेकिन उससे भी
कहाँ चैन मिलनेवाला है?
ये लोग तो समुद्रमंथन करेंगे
और खींचके ले आयेंगे
मेरी जातिको
समंदरकी तहसे भी.
अब तो मैं
राहमें आँखें बिछाकर बैठी हूँ.
समंदरकी तहसे भी.
अब तो मैं
जातिको निगल जाय ऐसे
किसी नीलकंठकी
साहिल परमारकी कविता
सिर्फ इतना ही, विशेष कुछ नहीँ.
यूँ तो रघला,
मेरी चाली और तेरी सोसायटीके बीच
कुछ भी नहीँ
है सिर्फ एक दीवार
पांच साढे पांच फूटकी दीवार
सिर्फ इतना ही , विशेष कुछ नहीँ.
पन्द्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी के दिन
वंदे मातरम और जन गण मणके सूर
कपडा मिलके सांचोंकी घरघराटीको भेद कर
मेरे मकान तक पहुँच नहीँ पाते
सिर्फ इतना ही , विशेष कुछ नहीँ.
तेरा भाई एयरकंडीशन्ड रुममें
रंगारंग कवायत और सलामी
टी.वी.पर देख रहा होता है तब
मेरा भाई सिपोरके कोई पराये खेतमें
वेठ करता है.
सिर्फ इतना ही , विशेष कुछ नहीँ.
रथयात्राके दिन
तुम तेरे बहनोइके ट्रकमें बैठकर
मुठ्ठीभर मुंगका दाता होकर
हुलसित हो गए थे तब
मेरा पड़ोसी
अपनी टायफोइडसे मृत बेटीके लिए
आंसू बहानेसे भी रहा
उसकी अश्रुग्रंथियाँ पर असह्य दबाव था
उसका चेहरा और मन दोनों तंग थे
क्योंकि बलियाने – भीमके लफड़े नंबर एककी पैदाइशने
उसे रोनेको मना फरमाया था.
जन्माष्टमीके दिन तुम परिवारके संग
कारमेन बैठके सैरको निकले थे तब
मैं मेरी बेटीके फटे हुए फ्रोकको
थीगली लगा रहा था.
बेबी सयानी हुई तबसे लेकर
पांच पांच मेले निकल गए
मैं उसे खेलनेके लिए
चाभीवाली मोटर तक दिला न सका
सिर्फ इतना ही , विशेष कुछ नहीँ.
आरक्षणके दंगोंके वक्त एक दिन
तेरी छतसे
सनसनाता हुआ एक पत्थर आया
और मेरे सर पर लगा
धडधड खूनकी धारा बहने लगी
उसके पीछे ही आयी मशालने
मेरे घरको आग लगा दी
सिर्फ इतना ही , विशेष कुछ नहीँ.
कभी कभी
स्कूली जीवनके दौरान किया गया
‘भारत मेरा देश है’का
तोतापाठ मुझे याद आ जाता है
तो मैं खीलखिलाके हंस देता हूँ
सिर्फ इतना ही , विशेष कुछ नहीँ.
चंदू महेरियाकी कविता
काव्यका मूल्य
मेरे काव्यका मूल्य तुम समझ न पाओगे.
भले ही ‘नवचेतन’* उसे निश्चेतन समझे
‘कुमार’*की काव्यसृष्टिके लिए वह नेपथ्यवासी भली ही रहता
‘कविता’*को कविता द्वारा जीवित रखनेवाले मित्र
भली ही उसकी गणना अकवितामें करें.
एक समालोचक मित्र तो कहते रहते थे कि
‘शैली और भाषाके अनेक काले कलंक मौजूद हैं तुम्हारे काव्योंमें.’
‘कलंक ही काले नहीँ हैं, हमारा तो सूरज भी काला है.
‘काला सूरज’ लेकर हम तो बस निकल पड़े हैं ,
उसका उजाला तुम्हारी अंध आँखें पहचान न पाएंगीं.
भले ही तुम न समझ पाओ मेरे काव्यका मूल्य !
मैं कवि होना नहीं चाहता,
मैं तो विद्रोही होना चाहता हूँ विद्रोही.
विद्रोह्का एक आध शब्द भी अगर ठाकुर वजेसिंघके बधिर कान पर
टकराएगा
तो मेरी द्रष्टिमें मेरे काव्यका मूल्य अमूल्य होगा.
*गुजराती साहित्यिक पत्रिकाओंके नाम
सावधान
सावधान !
बीजलीका दबाव ४६० वोल्ट !
हर २४ घण्टे, एक शुद्र श्वासका अंत.
हर बसंत,एक हत्याकाण्ड.
श्रमकी भीख माँगता मानव हाथ .
फटेहाल यौवन भटकता.
अस्मिताका कुचला जाना.
कन्याका कौमार्यभोग.
काले लहुके फव्वारे.
फिर भी
आकाश चुप ,
पृथ्वी चुप,
चुप सारे जीवजन्तु,
जगह जगह भटकते साये पानीके लिए ,
सर्वत्र बालचीख.
हम अहमदाबादमें एस.सी.
खडोलमें लागी.
एक टुकड़ा रोटी,
चिलचिलाती धुप,
एक रिज़र्वेशन,
और अनंत हत्याकाण्ड.
सावधान करना था न मुझे
जब मैं गर्भस्थ था !
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