Monday, November 21, 2011

किसन सोसाकी कविता











यहाँ

मैंने पीया है यहाँ , तुमने ने भी दूध पीया है वहाँ.
यही एक द्वार है , वही द्वारसे ही
मैं भी आया हूँ यहाँ ,तुम भी आये हो यहाँ.

एक संज्ञाने कैसा अड्डा जमाया है यहाँ
एक संज्ञाने नीलाम किया मेरे इज्जतको
एक संज्ञाने तुम्हें फुलाया  है गुब्बारेकी तरह.

भूमि पर तो सामान ही चलाया है रथ यहाँ
यह अलग है कि मेरा सर खुला, छत्रहीन
तुमने सजाया है मोरमुकुट केशहीन सर पर यहाँ.

भोली समज पर दरिया पार किया है यहाँ,
एक मामूली असलियत पाते बरसों बीते
छद्मरंगी निम्न बुदबुदेने बनाया है तुम्हें.

तुमने मुझे, निहीतको सपनेमें जलाया है यहाँ.
मैं जल जाऊँगा इधर, तुम भी भस्म हो जाओगे उधर
तुमने मुझे, आग्नेयको ज्वालासे जगाया है यहाँ.


विरासत

बासी, पुरानी, बन्द हवा, विरासतमें मिली .
बेबस, प्रार्थना, दुआ , विरासतमें मिली.

छतकी जगह  आकाश मिला जंग लगा हुआ,
भयकी  दीवार, दिशा विरासतमें मिली .

सूख गयी है जो पीठ पर प्रस्वेदकी  नदी
आँखोंमें बस खाली कुआँ , विरासतमें मिला.

छटपटाती प्यास आंगन, कुलबुलाती भूख घर
मन  चुपके चुपके  रोना , विरासतमें मिला.

कराहती रही जहाँ बिस्मिल अस्मिता
लहुलुहान वही कोना , विरासतमें मिला.

कितने ही विषधारी फूँफकारते  रहे,
काली काली वह मंजुषा , विरासतमें मिली.

सूरज समान होकर आओ कि नष्ट कर दें  
दुस्वप्न, गहन निशा विरासतमें मिली



एकलव्य

नितान्त सौम्य हूँ, सरल सौंदर्य द्रव्य हूँ,
उद्दात्त हूँ, भव्य हूँ, मैं एकलव्य हूँ.

मेरा ही गंतव्य हूँ मैं, मैं एकलव्य हूँ.
निष्ठाका  पंचगव्य हूँ, मैं एकलव्य हूँ.

रख सकता हूँ चूप श्वान कोई चोटके बगैर
शर-शब्दका नैपूण्य  हूँ, मैं एकलव्य हूँ. 

युगोंका अन्धकार पी कर हुआ हूँ पुष्ट
सूरज समान दिव्य हूँ, मैं एकलव्य हूँ.

अंगूठा-शून्य शौर्यसे रक्षा तुम्हें भी पार्थ,
मैं पूरा ठोस मानव्य हूँ, मैं एकलव्य हूँ.

शताब्दियोंका साथ रहा फिर भी न समज सका ,
तेरा वही तो  वैफल्य है, मैं एकलव्य हूँ.

छलना तुम्हारी द्रोणकी, समज चुका हूँ मैं ,
सरापा अब मैं नव्य हूँ, मैं एकलव्य हूँ.

खोदो जरा जमीन, नजर  आएगा निज द्वेष
मैं काव्य हूँ, मैं कव्य हूँ, मैं एकलव्य हूँ.

Thursday, November 10, 2011

शंकर पेंटरकी कविता



क्यों रे बे

क्यों रे बे
इतने हो गए हो
मेरे सामने चलते
तुझे जरा भी डर नही स्साले,
जा तेरी बस्तीमें और पूछ
बताएँगे तुजे कौन हूँ मैं.
बापको तेरे नीमसे बांध
डंडेसे ठोका था दनादन.
बूढियाँ आयीं थीं मुहल्लेसे तेरे
मान-मनुहार करके छुडाया था .
मटकी ले कर आना अब तू
छाछ मांगने गांवमें स्साले
जाकर यहांसे लगवाऊंगा मुनादी
बंद कर दो दहाड़ी उनकी.
पुलिस पटेल, सरपंच मेरा,
पटवारी और कारकुन  मेरे,
गांवकी पूरी चौपाल मेरी
तालुकेका फोजदार मेरा
देख ले पूरा जिला मेरा
बडेसे बड़ा मंत्री मेरा
दिल्ली तक है शान मेरी
कौन है तेरा कौन है तेरा
कौन है तेरा कौन है तेरा
चाहूँ तो चीरके  रख दूं  
क्यों रे बे इतने
मेरे सामनेसे चलते तुजे
जरा भी डर न लगा?




कालिया ढोली



ढोल सिरहाने बरगद तले सोता है वह कालिया ढोली.

प्रजातंत्रमें शासकको चुननेवाला वह कालिया ढोली.


सोलह सिंगार करके गोरियाँ ,चिथडोंसे लिपटा वह कालिया ढोली.

गरबा घूमतीं गोरियाँ तब ढोल बजाता वह कालिया ढोली.

नाच नचाता वह कालिया ढोली.


सूरमाओंमें शोर्य बढाता, बूंगिया बजाकर वह कालिया ढोली..

मंगल कार्यमें मुहूर्तबेला आंगनमें रहता वह कालिया ढोली.


अन्तिमबेला स्मशानजानेवालोंके साथ नंगे पाँव वह कालिया ढोली.

मुर्दोंके कफन ओढ़नेवाला वह कालिया ढोली.


साफ़ झाड़ूसे गलियाँ करता वह कालिया ढोली.

जूठन मांग कर पेट भरता वह कालिया ढोली.


गालियाँ तू-तू सहनेका आदी हो गया वह कालिया ढोली.

अन्नदाता माईबाप हमारेहाथ जोड़ता वह कालिया ढोली.


जूता मारा, वापस देता साफ़ करके वह कालिया ढोली.

बेकार बातों पर भी खीखीयाता ,चापलूसी करता वह कालिया ढोली.

आँख जरासी फरकी साहूकारकी, सिहर उठता वह कालिया ढोली.

पैसा न मिलता फिर भी रातदिन बेगार उठाता वह कालिया ढोली.


मिट्टी-गारा घासफूस झुग्गीमें रहता वह कालिया ढोली.

सब दुखोँकी एक दवा, घटाघट दारू  पीता वह कालिया ढोली.


बेकसूर बीबी बच्चोंको पीटता  वह कालिया ढोली.

प्रजातंत्रमें शासकको चुननेवाला वह कालिया ढोली.






चैन कहाँ



बसमें बैठे

गंवईका
सबसे पहला सवाल,
‘कौन हैं साहब?’
पूछ लेगा गांव,
पूछ लेगा नाम
पूछ लेगा दूसरी हजार बातें.
फिर भी उसे चैन कहाँ.
दिल उमंडा जावे है.
रह रह कर पूछता है-
‘कौन हैं साहब?
कौन बस्ती
किस घर जाना है?
उसके दिलमें गजबके गुब्बारे उड़ते रहते हैं.
रह रह कर
जाननेके लिए जाति
वह प्रश्नोंके पर्बत ऊपर-तले कर लेता है.
लेकिन जब उसे पता चलता है कि
इसका तो जजमान है झाडूवाला
उसे लगता है जैसे विजलीका झटका,
वह चुप हो जाता है,
नाक चढ़ाकर, मुंह बनाकर
माथा फेर लेता है
और बच्चू बंद कर देता है
आगे कुछ भी पूछ्नेका.

Tuesday, September 27, 2011

उमेश सोलंकीकी कविता









आधुनिक अस्पृश्यता

बाहर था
वह भीतर घुस गया है
अंदर घुसकर तल तक पहुंचा है
और ऐसा चिपका है, ऐसा चिपका है
कि होता है कोई स्पर्श तो
स्पर्श महसूस ही नहीँ होता तनिक भी.
प्यारे प्यारे शब्द
भरे होते है खाली खाली अर्थोसे.
किताबोंके पन्ने पलटता हूँ
खचाखच उँगलियोंमे चुभ जाते है कांटे.
पक्के रस्ते पर चलता हूँ, चलता रहता  हूँ , चलता रहता  हूँ ,
रास्ता रास्तेसे मिल जाता है, मिलता जा रहा है, मिलता जा रहा है.
एक भी ठोकर लगी नहीँ है
फिर भी 
कहीं न पहुंचनेकी पीड़ा ठोकरको ठेठ पीछे छोड़ चली है ,
हाँ, ठेठ पीछे छोड़ चली है.

***

परंपरा

मेरे देश का नाम
नहीं मालूम
मेरे देश का धर्म
नहीं मालूम
मेरे देश की जाति 
नहीं मालूम
हाँ, मेरे देश की एक परंपरा है
परंपरा रूढ़िचुस्त है
परंपरा का नाम
नहीं मालूम
लेकिन परंपरा के बारेमें यह कह सकता हूं
पानी के साथ उसको नहीं बनती।
भूख के साथ उसका लगाव है।
हवा से वह बिखर जाती है
बारिश से वह उभर जाती है।
उसकी गुदड़ी में ठंड ठिठुर जाती है
और भी जोड़ सकता हूँ
बाल या वृद्ध
किशोर या युवा
स्त्री या पुरुष
मेरे देशवासियों के 
ललाट में यह परंपरा
ऑंखमें यह परंपरा
उनके चिपक गए गालमें यह परंपरा
चाम में यह परंपरा
बशर निकल आनेको झूझते हाड़ में परंपरा
उस के शरीरमें रक्तवाहिनियाँ नहीं
परंपरावाहिनियाँ हैं
मेरे देशवासी परंपरा खाते हैं
और परंपरा पीछे से बाहर निकालते हैं
मेरे देशमें परंपरा जीती है
जन्म लेती हैं  और मरती है
तो ठीक है, चलो
मेरे देशवासी
मेरा यह देश देखने
तुम आओगे न?

यहां परंपरा का अर्थ वंचितता या अभाव समझना.
(घूमन्तु समुदाय के संदर्भ में)

Wednesday, August 24, 2011

दान वाघेलाकी कविता













आस पुरानी

आस पुरानी,
प्यास पुरानी;
कौन ढोएगा
लाश पुरानी?

हरीश मंगलमकी कविता



















हे कवितादेवी

हे कवितादेवी,
मैं तुझे नचाने चाहता हूँ वास्तवके परदे पर.
हमने कभी
सप्तरंगी इन्द्रधनुका आनंद नहीँ लिया
उसी आकाशमें
एक्के बाद एक टूटते सीतारोंको देखकर
इन्द्र्राज्यसे  मुझे पैदल ही घर लौटना है.
देख,
खंडहर छप्परकी खपरैलको हटा
कितनी राह देख रहे हैं.
परियोंके देसमें उड़ना सहल है,
तुझे पंख फूट आयें यह सहज है.
लेकिन चल कंटीली धरती पर, नंगे पांव.
बाद्लके  घोड़े पर सवारी छोड़.
यहाँ बच्चे  एकटक देख रहे हैं
स्लेट-पेन बगैर.
तेरे शब्दबद्ध देहसे उसकी वाचा निकलेगी क्या?
याँ फिर अगर-मगर?
तेरे श्रवणकेन्द्र
अभ्यस्त हैं सुननेके लिए
केवल मंजुल रव.
सूनी है कभी तुमने मनुष्यकी  चीख?
तुझे याद रहती है तेरी सौन्दर्यलक्षी देह.
हरेक शब्द हमें मिलता है .
तुन फूलकर कुप्पा बन गयी हो ,
तुम फुदकती हो जैसे चिड़िया.
तुम अतिआनंदित  हो गयी हो
देखकर सुन्दर रंगोली.
लेकिन मैं तुझे नचाने चाहता हूँ वास्तवके परदे पर
और समझाना चाहता हों बेलीके मुरझानेका अर्थ.



केंसर


दुःखकी  भावनायें
दुस्वप्नकी तरह ताक लगाकर बैठी हैं
अनंतकालसे.
और मैं देख रहा हूँ
विस्फारित,लाल लाल सूखी आंखोंसे
जो मैंने कभी पहले नहीं देखा.
वृक्षकी पीठ पर विस्तीर्ण होती चली
केंसरगाँठ
और उसमेंसे लगातार रीसता
पीला,गाढ़ा पीप.
कहते हैं कि केंसर प्राणघातक रोग है
जो धीरेधीरे धूरेमें भिनभिनाते कीडोंकी तरह
खा जाएगा इन मूल्योंको.
सचमुच मुझे भी धीरेधीरे साक्षात्कार हुआ था
इस केंसरका.
प्रथमाचार्य  बालकदेव गोकलदास
और सच्चे धार्मिक होनेका स्वांग रचानेके लिए
मेज पर रखी गयी गीता.
और चश्मेसे
कड़ी नजर झांका था
प्रहार  करके फैंकी थी  संटी
(छूत लग जानेके डरसे ही तो)
जो आरपार उतर गयी थी मेरे अस्पृश्य जिगरसे
बा.गो.की नेमप्लेटके साथ.
और उस प्रहारसे हुई सूजन
आज भी है यथातथ.
शायद
काल होगा  वह पल, मेरे जन्मके वक्त.
रोग होगा वह पल,मेरे स्कूलप्रवेशके  वक्त.
उद्वेग होगा वह पल, मेरे समाजके ललाट पर.
अजीब उलझनमें फंस गया हूँ बरसोंसे.
अब बा.गो.नहीं रहे
लेकिन केंसरके अनगिनत जंतु
बा.गो.की विरासतके तौर पर   
सरपट भागते रहते हैं
सचमुच केंसर प्राणघातक रोग है
और वह लाईलाज है
फिर वही संटी,बा.गो.,अस्पृश्य सूजन.
अब एक के बाद एक पत्तेका गिरना ...
और वृक्ष हाँपता ही रहता हैं
हवाके झोंकेसे तड तड टहनियाँ टूट जातीं हैं.
यकायक आकाशमे
संध्याका लाल लाल रंग
अँधकारके साये लेकर
मेरी आँखोंमें कहांसे उतर रहा है
धीरेधीरे?