Tuesday, September 27, 2011

उमेश सोलंकीकी कविता









आधुनिक अस्पृश्यता

बाहर था
वह भीतर घुस गया है
अंदर घुसकर तल तक पहुंचा है
और ऐसा चिपका है, ऐसा चिपका है
कि होता है कोई स्पर्श तो
स्पर्श महसूस ही नहीँ होता तनिक भी.
प्यारे प्यारे शब्द
भरे होते है खाली खाली अर्थोसे.
किताबोंके पन्ने पलटता हूँ
खचाखच उँगलियोंमे चुभ जाते है कांटे.
पक्के रस्ते पर चलता हूँ, चलता रहता  हूँ , चलता रहता  हूँ ,
रास्ता रास्तेसे मिल जाता है, मिलता जा रहा है, मिलता जा रहा है.
एक भी ठोकर लगी नहीँ है
फिर भी 
कहीं न पहुंचनेकी पीड़ा ठोकरको ठेठ पीछे छोड़ चली है ,
हाँ, ठेठ पीछे छोड़ चली है.

***

परंपरा

मेरे देश का नाम
नहीं मालूम
मेरे देश का धर्म
नहीं मालूम
मेरे देश की जाति 
नहीं मालूम
हाँ, मेरे देश की एक परंपरा है
परंपरा रूढ़िचुस्त है
परंपरा का नाम
नहीं मालूम
लेकिन परंपरा के बारेमें यह कह सकता हूं
पानी के साथ उसको नहीं बनती।
भूख के साथ उसका लगाव है।
हवा से वह बिखर जाती है
बारिश से वह उभर जाती है।
उसकी गुदड़ी में ठंड ठिठुर जाती है
और भी जोड़ सकता हूँ
बाल या वृद्ध
किशोर या युवा
स्त्री या पुरुष
मेरे देशवासियों के 
ललाट में यह परंपरा
ऑंखमें यह परंपरा
उनके चिपक गए गालमें यह परंपरा
चाम में यह परंपरा
बशर निकल आनेको झूझते हाड़ में परंपरा
उस के शरीरमें रक्तवाहिनियाँ नहीं
परंपरावाहिनियाँ हैं
मेरे देशवासी परंपरा खाते हैं
और परंपरा पीछे से बाहर निकालते हैं
मेरे देशमें परंपरा जीती है
जन्म लेती हैं  और मरती है
तो ठीक है, चलो
मेरे देशवासी
मेरा यह देश देखने
तुम आओगे न?

यहां परंपरा का अर्थ वंचितता या अभाव समझना.
(घूमन्तु समुदाय के संदर्भ में)

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