Sunday, October 24, 2021

महर्षि ब्रह्म चमार की कविता


निश्चय

मेरे आँसु की एक बूँदकी कीमत
खून के जितनी
लगायी गयी
तब समझ में आया 
कि यहाँ तो
खून की नदियां बह रही है.

वाणी के ज़ख्म
और 
चाबुक के प्रहार.
मेरी देह है
ऐसा एहसास
कितने ही साल के बाद
आज मुझे हो रहा है.

वही अंतिम घर है मेरा.
अब जो खून बह गया है
उसे इतिहासमें मढ़ देना है,
मैंने किया है यह निश्चय!

कुसुम डाभी की कविता


मानसिक गुलाम

तेरे दिमागमें कैसे सवाल उठने चाहिए
यह हम तय करेंगे

तुम्हैं 
क्या कहना
क्या पीना
क्या पहनना
क्या ओढ़ना
हम तय करेंगे
 
तुम्हें 
क्या अध्ययन करना
क्या पढ़ना
क्या लिखना
हम तय करेंगे

तुम्हें 
किसे दान देना
कहाँ घूमने जाना
किस धर्मको मानना
हम तय करेंगे

तुम्हें
कौनसी फ़िल्म सीरियल देखना है
भजन सुनना या गजल
हम ही तय करेंगे

तुम्हें 
किससे करना है 
प्यार या नफरत
किससे करनी है शादी
कितने पैदा करना है बच्चे
सुन, वह भी हम ही तय करेंगे

तुझे 
जीना है
मरना है 
आत्महत्या करनी है
सुन, वह हमीं तय करेंगे

अगर तुम्हें लगता है
तुम स्वतंत्र हो
स्वयं निर्णय करते हो
तुम चाहो ऐसा जीते हो
तुम जो चाहते हो वही करते हो
तो सुन, दुबारा
दोस्त, यह तेरा वहम है
तेरा दिमाग हैक किया गया है
तुम महज कठपुतली हो
नाचते हो
कूदते हो
दौड़ते हो
खेलते हो
गाते हो
जीते हो
मरते हो
सब कुछ होता है
हमारे कहने के मुताबिक

करोड़ो 
तैयार हैं
तुम भी हो 
उनमेंसे एक।

Saturday, October 23, 2021

नगीनचन्द्र डोडिया की कविता


मेरा बाप

इस देशका यह दोष है
जिसने बापको मेरे
इस देशकी भूमि पर  
सिर उठाकर
जीने न दिया
उम्रभर.

उम्रभर जिसने पीया पसीना
जब भी प्यास लगी
(किसीका न खून पीया)
रोटीके टूकडेमें
जी रहे जिंदगी मेरे बापको
(किसीकी न रोटी छीन ली)

बाप मेरा 
जिसने लिया नहीं सरकारसे
सर्टिफेकट (बिलकुल जूठा)
स्वातंत्र्यसेनानी होनेका
न ही खाया कोई पेंशन.
न ही जिसने कभी
हाथ जोड़कर  वोट मांगकर
देशकी जनताको उल्लू बनाया.

बाप मेरा
जिसने  खाद्यान्नमें मिलावट कभी न कि,
न किसी जानको जोखिममें डाला.
जिंदगीमें  कभी न फैलाया हाथ
ना किसीकी बहन-बेटीकी इज्जत पे हाथ डाला.
फिरभी लानत है  इस देशकी कातिल प्रजाको
जिसने बापको मेरे
इस देशकी भूमि पर  
सिर उठा का
जीने न दिया
उम्रभर.

बाप मेरा 
जिसने उम्रभर
कभी न फैलाया हाथ किसीके सामने,
न ही याचना कि दयाकी
जिनेकी खातिर न कभी वो गीडगीडाया
फिर भी ऐसे मेरे बापको
इस देशके नापाक लोगोंने
कभी जीने न दीया
सिर उठा कर
उम्रभर.

पुत्र मेरा
आगे चलकर
लेकिन
कभी न कहेगा ऐसा.

अपूर्व अमीन की कविता


न ही छंद निकलता है
न ही अलंकार
न ही बाहर आता है हमारे शब्दों से श्रृंगार
मूंह खोलते ही 
चीखें निकालतीं  क्रुद्ध कविता निकलती है।
मधुर रस नहीं निकलता हमारे कंठसे
जैसे ही जुबान हिलती है, गाली निकलती है.
कुचली हुई क्रोधित कविता सदा ही व्याकरण हिन निकलती हैं
न ही हल्की  बूंदाबांदी में प्रेम कविता निकलती है
गला फटते ही तुरन्त बरसों से तपती गर्मियों में  दोपहर में खड़ी रखी आग निकलती है.
शातिर रोना नहीं आता हैं न ही कृत्रिम हास्य,
जैसे ही मुंह खोलते हैं नाखून गड़ाती जाति बाहर निकलती है.
हमारे लेखन में न ही फूल बाहर आते हैं
न ही झरने और प्रपात आते हैं
जैसे ही छिड़कते हैं स्याही, कुचले हुए हाथों में तेजाबी तलवारें बाहर निकलतीं हैं.
अगर शहरमें आँधी तूफान आ जाता है ,
कब्र चीर कर मुर्दे बाहर निकल आते हैं.
न छंद आते हैं , न ही अलंकार आते हैं
मुंह खोलते ही स्वर पेटी से रोक दिया गया था वह आक्रोश बाहर निकल आता है.